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८० : भक्तभावन
 

सिपाहान्योक्ति


ऐठी वेठी पांग बांकी भोइलों झुकाई राखें। पाछे लटकाइ राखें पेंच वांकवाने सौं।
अकड़ि अकड़ि चले पकड़ि पकड़ि तेग। जकड़ि जकड़ि ढाल बांधे इतराने सों।
ग्वाल कवि कहे पेशक बज तबल लेकें। निज बल भाखें राखे काम न लजाने सों।
लेकरि तमचा चोट चार को बरूद बाँधि। बनिके सिपाही जुम्यो चाहे तोपखाने सों॥२२॥

मायान्योक्ति


तेरे हो वनन की हिय में आश लगी रहै। जगी रहै छुधा मोहि अति अधिकाइ के।
छुटे छोर पार कितने ही पिये आइ आइ। मेंने करी कोन तकसीर भोरे भाइ के।
ग्वाल यह साखी में तो बछरा तिहारो दोन। दन्त को न पाइक न पीयक दुखाइ के।
एरी माइ गाइ अम्भू प्यावे तो भली है बात। ना तो फन्द काटि चारो चरु कहूं जाइ॥२३॥

लाल ओ सुर्ख कहे हमसों जिन पालिबे की गति ने कली है।
देखि युगो तुही आयो हुतो पर पेट भर्यो नहि बेकली है।
त्यों कवि ग्वाल करीसो करी तुम में कहा त्यागहु टेक ली है।
जाल में आइ फैसे तो फसे यह नेह को रोति निवेकली है॥२४॥

इति अन्योक्ति