पृष्ठ:भक्तभावन.pdf/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

अथ प्रस्तावक नीति कवित्त

पाखण्ड सिद्धी विषे कविस–यमक

विमल विभूत धारें चाहत विभुत फिरे। पंचभूत मोहि भूत थापें होत जैसे है।
तेवर रंगीन राखे तूम्बर से गावे फेर। काहूँ तें कहत मागि तूम्बर हमे में है।
ग्वाल कवि कहे फेरें मनका विकारवे न। मनका फिरावें लोभ मनका धरे से है।
सिद्धि तौ न सिद्धि पर सिद्धि रूप बनि बनि। करे भोग सिद्धि प्रसिद्धि सिद्ध ऐसे हैं॥१॥

कवित्त–यमक

वासना विविध विधि भसम करी न गर्द। भसम को गोला जो पुत्तायोतो भयो कहा।
कामादिक पंचकतें भयो न भगों हौं कभू। वसन भगौ हौ रंगवायो तो भयो कहा
ग्वाल कवि कहे जातवेद तज दियो जिन। जातवेद सों तन तपायो तो भयो कहा।
अलख में मन को लगायो छिन एक हन। हार हार अलख जगायो तो भयो कहा॥२॥

कवित्त

जाकी खूब खूबी खूब खूबन के खूबी इहाँ। ताकी खूब खूबी खूब खूबी न भगाहना।
जाकी बदजाती बदजाती इहाँ चीरन में। ताकी बदजाती बदजाती व्हां ऊराहना।
ग्वाल कवि येई परि सिद्धि सिद्ध रैहै पर। सिद्ध वही जाकी है इहाँ वहाँ सराहना।
जाकी इहाँ चाहना है ताकी उहाँ चाहना है। जाकी इहां चाह ना है ताकी उहाँ चाह ना॥३॥

नेह निबाह विषे

चाहिये जरूर इनसानियत मानस में। नौबत बजे पें फेर भेर बजनो कहाँ।
जात औ अजात कहा हिन्दू औ मुसलमान। जातें कियो नेह फेर तातें भजनो कहाँ।
ग्वाल कवि जोक लिये शीश पें बुराइ लई। लाजहू गँवाई कहो फेर लजनो कहा।
यातो रंग काहू के न रंगिये सुजान प्यारे। रंगे तो रंगेई रहे फेर तजनो कहा॥४॥

जीविका विषे ब्रह्म उपालंभ

आवत जरा के जड़ बुद्धि होत सांची सुनी। याही ते सठयानोरे विरंचि गुनखान है।
जीविका विहीन क्यों बनाये जन जग बीच। जीविका के आसरे रखेंगे तन प्रान है।
ग्वाल कवि जाहर जहर होत जीविका तें। बाढ़त अछेइ जप जस को निदान है।
जीविका विहीन है न जीवन सु जीवन को। जीवन मरे तें। जानस जहाँन है॥५॥