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प्रस्तावक नीति कवित्त : ८६
 


पण्डित और कवित्त के कठिन कर्म विषे

पहिले तो मानुस को पढिवो कठिन अति। पढ़े ता प्रदेशन में जानो देश निंदके।
फेर अति कठिन सभान में पहुँच जैबो। पहुँचि गयो तो शत्रु फन हैं फनिंदके।
ग्वाल कवि जोपे लये जीत उनहूँ को तोपे। रीझबो कठिन तन धारे जे नरिंद के।
रीझे तों न देय देह ओपें तों मधुर बानी। याते हम जानी गुनी गुन ही गुबिंद के॥१२॥

गुनी गाइक पे जात विषे

मूँठन के मण्डल घमण्ड के उमड़े वही। वाग बलखण्ड बनखण्ड है सघन में।
जिनके सुभाहु निखासित निरस वारे। फूल फूल रहे फूल फूल अनगन पें।
ग्वाल कवि तिनतें हुलास कहुं पावे कोन। मौन करि गौन की जियत है लगन पें।
गुनी गुन गाइक पें ऐसें चलि जात जेसें। भौंर दौर जात है सुवास के सुमन पें॥१३॥

ईश्वर भजना और संतोष में रहना

रोजगार तेरा रोज लगा है कदम साथ। गम साथ क्या है अब सासक भीना लाने।
जिसने दिया दम वह दम नहीं देगा। यार बेगम गुजार बनाने कियों के दालाने।
ग्वाल कवि हाजिर खुदा को बंदगी में रहु। उसको पसंदगी के कार सब बजा लाने।
दाना छितराना तहां जाना है जरूर अरु। पाना भी वही है जो दिलाना हुक्म ताला ने॥१४॥

मूर्ख

बैठने की उठिबे को बोलिबे की चलिबे की। जानत न एको चाल आइ जग ढांचे में।
देखत में मानुष की आकृति दिखाई परे पर नर पशु औ परन्द है न जाँचे में।
ग्वाल कवि जानि के विरश्चि[१] तुच्छ जन्तुन को। डारे और ठौर लखि ख्याल ही के खांचे में।
कूकरते सूकरतें गर्दभते उल्लूकते। काढि काढि जीव डारे मानुष के साँचे में॥१५॥

कवि को खिझाइबे विषे

कवित्त के अपमानी देह की पतल करी। ताको नाम खण्ड मो मसाले वा कुचाल के।
गगन जलेबि नहिं तमन तिकोने धरी। खेड़ी रमन सेव सगन सम्हाल के।
ग्वाल कवि कहे इस आदि के अवाद सवाद। लाद लाद देवें बहु विजन जंजाल के।
पोसे अतिरोसे जोस जोसे बिन जोसे ऐसे। कविन के कोसे ते परोसे मानो काल के॥१६॥

कवित्त

त्यालन के चोसे जैसें मूठके मसोसे जैसें। डाकुन के खोसें जैसें होत बदहाल के।
जहर के तोसे जैसें भालन के ठोसे जैसें। छरेन के तोसें जैसें रहेना जमाल के।
ग्वाल कवि कहत चुरेलन के पोसे जैसें। पावक के बोसे जैसें बिना धर्म जाल के।
रामजू के ऐसे जैसे तापिन[२] के दोसे ऐसें। कवित्त के कोसे तें परोसें आगैं काल के॥१७॥


  1. मूलपाठ :––विरंची।
  2. तापीन।