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प्रस्तावक नीति कवित्त : ८५
 


अंगों प्रति उपदेश

एरे हाथ जोपे बिन आसिख रहे न तोपें। सों ही जे न जोरे हाथ तिनकों तूठ के जिन।
जो चारु चरचा बिना न रहें सोवें चित्त। जेहे हिय दाहक चाहक सों वके तिन।
ग्वाल कवि जोपें लोभ तो हूँ सों रह्यो न जाय। तोपे जे अदाता ताके बैन रस छके तिन।
ऐरे द्रग मेरे जो तका तकी तजे न तोपें। तोकू जे तके नतिन तन तुहूत के जिन॥२४॥

हरीद्वता विषे

सबही के बाँके बोल सहने परत सदा। ढाँके न परत कछु मरमलु कौन तें।
नैन नीचें करने परत हर एकन सों। बैन झूठे कहने परत छल भौनतें।
ग्वाल कवि कहे जुलि रचनी परत लाख। लाजतें बंधत बैर प्यार होत मौनतें।
बृत्ति होत शिथल लचारी कीजु क्रति होत। हित अनहित होत वित्त अनहोन तें॥२५॥

भडवा-लुच्चा सरदार विषे

आदर अपार कर शोभा पारवार कर। भाँत भाँत प्यार कर राजी करिबो करे।
सभा में सुनावे कहे कंठ गज तुरी देवो। लाखन की बात नित ताजी करिबो करे।
ग्वाल कवि कहे जब बिदा को सुनत नाम। सूरत हराम इतराजी करिबो करे।
कबिन सौं दगाबाजी दमबाजी ठगबाजी। पाजीन को पाजी महापाजी करिबो करे॥२६॥

भडुवा-वंभी राजा विषे

सोख शेर मारिबे को सभा में सुनावे सदा। स्यारह न मार्यो कभू झाड़ी की सरीनको।
हाथ में न जोर यह शेरी के उगइबे को। जिभ्यातें उछार्यो करे पुंज शिखरीन को।
ग्वाल कवि कहे श्री युधिष्ठिर सों साँचो बने। सबहीं को देत दम साम औ धरीन को,
कोई कोई भूप ऐसो बेशरम होइ जात। राख लेत हाथी चारो डारत चिरीन को॥२७॥

पंडित निदा

व्याकरन ज्योतिष कछूक धर्मशास्त्र पढि। द्रव्य ओ पदार्थ गुण न्याय के भनत है।
और कों बतावे ब्रह्म ज्ञान राग द्वेष तजो। आप महाकामी अति ईरषा सनत है।
ग्वाल कवि द्वै द्वै चार चार शिख शुभ श्लोक। साहित के ग्रंथन के नाम को गनत है।
आदि अंत एक हू न ग्रंथ गुन मंडित है। ऐसे किते खंडित ते पंडित बनत है॥२८॥

कलि विषे

ईरषा की सैन लिये कलियुग भूप आयो। झूठ के नगारे सो धजत दिन रात है।
काम क्रोध लोभ मोह तेग तीर धनु नेजा। अदया अखंड तोप चंद घहरात है।
ग्वाल कवि जब्बर गसीले गोल गोला चले। टोला कूट बचनों के पूर लहरात है।
हूजियो हुस्यार पार साँच के मवासे माँहि। पाप को पताका आसमान फहरात है॥२९॥