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प्रस्तावक नीति कवित्त : ८७
 

अधम मित्र विषे

संपति में रहे संग अंग बने रहे नीके। रंग रंग छल बैन बोले हरखाने के।
मित्र के दुपट्टा एक खरचि दुशाला चहै। कर्ज ले न देई बने रूप है बहाने के।
ग्वाल कवि कहे खोटे काम में फसाई देइ। दाइ दाइ खेंचे दाम साथी सीर्फ खाने के।
धर्म को न माने पर पीर कों न पहिचाने। ऐसे मित्र बहुत बिचर या जमाने के॥३६॥

प्रेम करायबे विषे नायिका प्रति दूती वचन

ना रहे संपति नित्य सदा मद छाये अनेक यही भ्रमजार है।
जात वृथा यह वैस वही हर एकन कों हर एक बिचार है।
त्यों कबि ग्वाल सही है वही जो लही जग में रसरीत[१] अपार है।
नेह के नेजन को झिलिबो हिलिबो मिलिबो खिलिबो यही सार है॥३७॥

दैव की विचित्र गति

कौन को मालुम ही जग में दशकंध हने जुग वाल प्रमाने।
तूंहै विभीखन लंकपती जिहको अति सूघता लोक बखाने।
कोरवे जीतिहै यो कवि ग्वाल गरीब जे पांडव पीड़ित प्राने।
जाने जुगींदमुनिंद न इंद्रसु गोबिंद की गति गोविंद जाने॥३८॥

आकों प्रभु सहाय ताको बिगरत नाँहि

धारे अंग अंग तेग तबल कटोरे कोट। मरद मुछारे बल भारे तेह ताप रे।
वित्त के भंडारे हितचित्त के करारे सब। कित उजियारे प्रन भारे तेज़ मंद रे।
ग्वाल तू अखारे वाम झारे द्रौपदी के वास। दुसासन सारे ही उघारे में न उघरे।
चार भुज वारे जाके होत रखवारे ताके। दोइ भुजवारे के बिगारे कहा बिगरे॥३९॥

कवित्त

कंस से हत्यारे करे क्रोध विकरारे जिन। मारे कई बालक विचारे मृदु मंद रे।
बंद में उतारे वसुदेव जडे तारे जहाँ। जन विकरारे[२] भयकारे कारे कंदरे।
ग्वाल कवि गोकुल सिधारे अंधियारे सोई। सेत फन वारे छत्र ठाटे चले सुंदरे।
चार भुज वारे जाके होत रखवारे ताके। दोइ भुजवारे के बिगारे कहा बिगरे॥४०॥

इति प्रस्तावक कवित्त


  1. मूलपाठ––रसरित।
  2. वीकरारे।