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द्रगशतकम् : ८१
 

सुर असुरन अरु सम्भु को। पोषत तिय तो नैन।
अमी वारूनी गरल करि। करत इते कन चैन॥१०॥
नहिं विधि आसन लछि। नहिं हरि हाथ वसिंद।
जैसी कछू सुवास छबि। तिय तो द्रग अरविंद॥११॥
बरुनी बखतर धर रहै। पुतरी ढाल सजोर।
चितवनि बाँकी असि सिये। नैन सिपाही तोर॥१२॥
बरुनी सांमल सखिन से। तारा हरि सुख रास।
सितता श्री राधा लिये। द्रग चंचल रचि रास॥१३॥
तन नद अखियाँ नाव वन। तारे खेवट त्यार।
मनहि मलाही सेवके। दोवत सुधार॥१४॥
प्यारी अँखियाँ रावरी। है सुखदर दरियाउ।
बरुनी सुहद सिकंदरी। कहत न आउ न आउ॥१५॥
द्रग कामद में लिख रहै। तारे प्रेम सु आंक।
जो बांचे सो होत है। बोरो बके निशांक॥१६॥
नैना फन्दक फबि रहे। अरुनाई को जाला
प्रेम किलिन को गद नितें। मन मृग फैसि बद हाल॥१७॥
द्रग समता बन जाइ जो। तो जीवन सफलाइ।
इहि हित मृग वन जाय रहि। मीन रहे वन जाइ॥१८॥
अँखिया तेरी अंगना। है अति ही अभिराम।
अमी पियालिन बोच धसि। पीवत सालिगराम॥१९॥
नैना नटुवा रावरे। पलक सु ढोल बजाहि।
दीठि कला बाजी करें। राजी करन पियाहि॥२०॥
मदते कबहूँ लाल से। कबहुँ होत कजरार।
कबहुँ विशद है जात है। द्रग बहु रूप सु धार॥२१॥
जो उनके चितवें तनक। रहे वही न संभाल।
नैन तिहारे लाडिली। है कह कह दीवाल॥२२॥
तो चितवनि अंकड़ सद्रस। छेदत सूधी जाय।
बँचत हू हरि लेत है। हृदय प्रान इक दाय॥२३॥
कोमल बेधक होत नहिं। तो द्रग कमल दिखाय।
पै यह शर है मैन को। यों हि पार कढि जाय॥२४॥
नैनारो ना काम के। परी काम की छाय।
क्यों न होय ये काम कर कोन काम सर साय॥२५॥