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९० : भक्तभावन
 


नेह भरे गुन के भरे। जोति बरे द्रग दीप।
निस दिन इक से सखि दुवे। द्वीप द्वीप के दीप॥२६॥
बादशाह तिय द्रगन के। तेरे द्रग है बाल।
पलक छत्र बरुनी चैवर। चितवनि फौज विशाल॥२७॥
मदन महीपति के जु ये। तेरे द्रग सु वकील।
क्योंकि बढावत काम ये। होन देत नहिं ढोल॥२८॥
सारस द्रग तेरे निरखि। सारस वेद बिजात।
सारस दल नये। सारस जोड़ सुहात॥२९॥
तीरंदाजी जो सिखे। तो द्रग गुरु करि लेइ।
दूरंदाजी की कला। इन ते बढ़ि को देह॥३०॥
चितवनि मीठी मेलि के। नहीं लखन विषमांहि।
सो द्रग द्रग करि गाफिलो। मन धन छोडत नाहिं॥३१॥
तेरे द्रग शरतें छियो। प्रान सिपाही सूर।
ससकत हूँ सों ही रहे। नेको होत न दूर॥३२॥
पलक गोदरी बरुनि गुन। पुतरी ताज सुधार।
अहाँ सदा करि लेत मन। द्रग येन यों तुम्हार॥३३॥
द्रग तेरे खंजन नहीं। खंजर खूबी खूब।
यो धीरज बखतर कठिन। फोडि जात है दूब॥३४॥
पुतरी विष बोरे भये। बरुनी चढ़े खरसान।
तो द्रग सर विकलान करि। क्यों नहिं सोखे प्रान॥३५॥
और बान ते जे छिदत। ते रोवत दिन रात।
तेरे द्रग सर के छिदे। छिन छिन अति हुलसात॥३६॥
यह अचरज मों को महा। बुधि कछु करत न दोर।
तो द्रग सर छेदो हियो। छिदत्त चहत है और॥३७॥
तो द्रग कमलन तें कढ़े। चितवनि पावक बान।
त्यागो निज कुल धरम जिन। क्यों न जरावें प्रान॥३८॥
द्रग तरकस ही में इन्हें। अजी रहन तुम देउ।
तिरछी चितवनि सरन तें। मत प्रानन को लेउ॥३९॥
बडो पाप निरदेयनी। घायल फिर वार।
द्रग सर छिदे परे तिन्हें। छेदत पार हजार॥४०॥
तेरे द्रग सर के छिदे। जखमी अति बद हाल।
सीवन मलहम तेलहू। पूरि सकत नहिं साल॥४१॥