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द्रगशतकम् : ९१
 


सूर सुधा प्याली उभय। धरी चंद में लाय।
ताहि पान हित असुर शठ। तामें बैठे आय॥४२॥
त्रिपुर रूप विविकुंड के। प्रभा कटोरी ऐन।
किधों जंत्र जग मोहने। के प्यारो के नैन॥४३॥
तेरे नैनन की तुला। तोल्यो मन अरु प्रान।
स्वास समीरहु के लगे। रहतजु एक समान॥४४॥
हरि सत विधि रज ईश तम। इक इक गुन आधार।
प्यारी तो द्रग गुनति हूँ। क्यों न करे भव पार॥४५॥
मोन केत के मोन तें। सरस प्रिया के नैन।
वात घात सब करत यें। दे दे सुंदर सैन॥४६॥
सख चख बिन पग चलत चल। पें दुग की सम नाहि।
उनको नर मारत रहे। ये नर हने स चाहि॥४७॥
इक इक रंग के मीन बहु। दूग त्रै रंग रंगीन।
ये मारे अरु जिबाइ ले। वे इन गुनन विहीन॥४८॥
शख जल में जल चखन में। वे जल चपल दिखाय।
ये बिन जल चंचल रहे। ये गुन सरस सुहाय॥४९॥
रिस मुद मेल अमेल की। कहँ कमलन तें सैन।
ये गुन गन अनगिन भरे। प्यारी तेरे नेन॥५०॥
रतिहूर्ते अद्भुत लखे। प्यारी तेरे नैन।
छोरधि सीपी उलटि के। हरि धरि पूजत मैंन॥५१॥
ललची हँसि ता शोक मय। रिसी उछाही पोन।
डरी संकुचित चकित सम। चितवनि नव रस लीन॥५२॥
रात मुर्दे दिन में खुले। यां तें कमल बने न।
निस दिन प्रफुलित रहत है। प्यारी तेरे नैन॥५३॥
प्यारी तेरे दुगन में। बसत मंत्र ये चार।
आकषरन सु उचाटिबो। मोहन, मारन, त्यार॥५४॥
चंचलाइ तो दूगन की। लखि लखि खंजन मोन।
सीखत पें आवत नहीं। होत मलीन रु दीन॥५५॥
मीत दरस के समय। द्रग चपलाई जु आय।
सो लखि मीन मलीन के। डूबे जल में जाय॥५६॥
लखि तिय चख की चपलई। खंजन गये खिस्याय।
चिता चिनगिनतें जरे। कारे परे लजाय॥५७॥