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१२ : भक्तभावन
 


वन वन के आवत रहे। वन वन के उमगाइ।
लखि द्रग तारे सम अवन। वन मिस रोवत जाइ॥५८॥
अँखियां तेरी शशिमुखी। बिन पखियाँ उडिजाइ।
लखियाँ परे न काहु को। सखियाँ चतुर भुलाइ॥५९॥
भयेहु सबनतें। वाहू को इन वीर।
स्वादू किय बलवीर को। तो द्रग जादूगीर॥६०॥
नैन नेकहू ये शिखे। यातें ठीक ही नैंन।
मिले खिले पल में छलें। दले मले चित चैन॥६१॥
बिन कजरारी करत रद। कजरारी अखियान।
बिन सरखान करे कतल। ये असि सी खरसान॥६२॥
तो अखियाँ मदहद भरी। ताज लबरेज।
पे न दया नेकहु भरी। काटत रहत करेज॥६३॥
अखियां अद्भुत रावरी। पानी को नितवास।
चितवत ही लाबे अगिन घूमन करे प्रकास॥६४॥
धनु ते शर छुटि ना फिरे। दृग शर इनि फिर आइ।
यह विधि असतर तुहि दियो। दई सिहाइ सिहाइ॥६५॥
अमल कमल दल दल मलन। छलिन छलन छविवंत।
चपलन में चपलन चख। तो दूग चलन लखंत॥६६॥
सूधी चितवनि बानसी। होइ जात है पार।
बंक बिलोकत तो नयन। तब दारत है मार॥६७॥
चितवत चितवनि चीकनी। चुभत चुभत चुभि जाय।
रूखी चितवनि पलक में। करत हजारन घाय॥६८॥
सरसीले हरनीनते। रहे रसीले ऐन।
कीले रतिपति ने तक। गजवीले ये नैन॥६९॥
नैना बेधक कहत है। बेधन कहूँ दिखाय।
जो न बेधतो कढ़त क्यों। हिये हजारन हाय॥७०॥
हरनी के हमें लखें। ओ हरनी के ऐन।
हरनी के द्रग तें भले। मन हरनी के नैन॥७१॥
शशिवदनी तेरे नयन। जगत जोति के जाय।
जोति दिखे मन को हरैं। यह अति अचरज माय॥७२॥
अरजुन हू के बान तें। द्रग बलवान अपार।
वे तन वे बेधत हुते। ये बिन परसे पार॥७३॥