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९४ : भक्तभावन
 


तो अँखियां नीकी कहत। भरी अनी की घात।
हिय वेधत कसकत नहीं। भीतर धसकत जात॥८९॥
काजर की का जर हती। जो दृग शोम बढ़ाय।
द्रग ये अनुपमते प्रभा। काजर की सरसाय॥९०॥
रवि किरन हूँ ते अधिक। तुव इक चितवन तेज।
ओट भये हू हिय जरे। बुझे न किय जल सेज॥९१॥
रोकि रोकिरी रोकि री। ये गजबीले नैन।
पल में कतल करें हियो। ऐसे देखें में न॥९२॥
तोरथ के जे फल विमल। ते नित तो दूग तीर।
तीरथ के सब समर के। चले न कछु तदवीर॥९३॥
किसे भरे केते मरत। किते साल बे शाल।
अखियाँ तेरी ही भई। पर खेली ब्रजबाल॥९४॥
क्या लाली कोयेन की। क्या कजरारी रेख।
क्या अलबेली आँख ये। ओ चितवनि अनिमेख॥९५॥
अधखुलियां खियांन को। अलसनियाँसु चितौन।
अनियाँ वनियां पैनियो। नहि भेदनियाँ कौन॥९६)
क्या जाने किहि लगन में। रवे गये तो नैन।
लाख लाख विधि करत विधि। ऐसे और बनैन ॥९७॥
ये इठलाहट की भरी। अलबेली अखियान।
निरखि निरखि बचि है न ब्रज। करें राखि तू म्यान॥९८॥
सुंदरता शशि ते खतम। मधुर पियूष परे न।
खूबी नैनन की खतम। करो तिहारे नैन॥९९॥
प्यारी लोचन ब्रह्म में। मन लय ह्ववो भुक्ति।
नजर ओर ये जात नहिं। होत जगत ते मुक्ति ॥१००॥

इति श्री द्रगशतकं सम्पूर्ण