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१६ : भक्तभावन
 

पतिततारिणी, स्नान माहात्म्य का वर्णन करने के साथ ही साथ उसके धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पौराणिक एवं नैतिक पक्षों का भी बड़ा ही मनोज्ञ, भाववाही और काव्यमय चित्रण किया है। निम्नलिखित कवित्त में दिनेश-तनया की महिमा का इस प्रकार गुणगान किया गया है:–

गावैं गुन नारद न पावैं पार सनकादि,
बन्दीजन हारै हरी मेघा मंजु सेस की।
दास किये तें अति हरस सरस होत,
परम पुनीत होत पदवी सुरेस की।
ग्वाल कवि महिमा कही न परै काहु विधि,
बैठी रहै महिमा दसा है यो गनेस की।
तारक जमेंस की विदारक कलेस की है,
तारक हमेंस की है तनया दिनेस की।

इसमें ग्वाल ने अपने प्रिय विषय नवरस और षट्ऋतुओं का भी वर्णन किया है जिसके लिए उन्हें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कोप भाजन बनना पड़ा था।[१] वीर रस का एक उदाहरण प्रस्तुत है:–

दीह दुराचारी व्यभिचारी अनाचारी एक,
न्हाई जमुना में कह्यो कैसे में उघरिहों।
फेर प्रान त्यागे भुज चार भई ताही ठौर,
आयो जमदूत कहे तोहि में पकरिहों।
ग्वाल कवि एतो सुनि भाग्यबलि भाख्यो वह,
निज भुजदण्ड को घमण्ड अनुसरिहों।
तोरि जम दण्ड को मरोरि बाहु दण्ड को सु,
फोरि फारि मंडल अखंड खंड करिहों।

विद्वानों का अभिमत है कि यह रचना महाकवि पद्माकर की सुप्रसिद्ध रचना 'गंगा-लहरी' के आधार पर लिखी गयी है। किन्तु डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी का मत है कि यह कवि का तृतीय ग्रंथ है तथा इसे लिखने की प्रेरणा उन्हें पण्डितराज जगन्नाथ की संस्कृत रचना गंगालहरी से मिली, पद्माकर की गंगालहरी से नहीं। पद्माकर की गंगालहरी वस्तुतः ग्वाल की यमुना लहरी के चार-पाँच वर्ष उपरांत की रचना है।[२]

२. श्रीकृष्णजू को नखशिख :

यह महाकवि ग्वाल की एक अति प्रसिद्ध शृङ्गारिक रचना मानी जाती है। इसमें श्रीकृष्ण के नखशिख का रीतिकालीन पद्धति के अनुसार अत्यन्त सुन्दर विवेचन किया गया है। 'नखशिख' के अनेक छंद कवि के रसिकानंद, रसरंग, साहित्यानंद आदि ग्रंथों में भी प्राप्त होते हैं। भक्तभावन में ग्वालजी ने इसे अविकल रूप में संगृहीत किया है। इसका रचनाकाल इस प्रकार दिया हुआ है:–

  1. हिदी-सहित्य का इतिहास-आ॰ रामचन्द्र शुक्ल, पृ॰ २७२ ।
  2. महाकवि ग्वाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व-डॉ॰ भगवानसहाय पचौरी, पृ॰ १९१ ।