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भूमिका : १७
 

वेद सिद्धि अहि 'रैनिकर संवत आश्विन मास
भयो दशहरा को प्रगट नखशिख सरस प्रकाश।

वामगणना से सं॰ १८८४ वि॰ ही निकलता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ॰ किशोरीलाल गुप्त तथा डॉ॰ महेन्द्रकुमार ने भी अंताक्ष्यि के आधार पर इसी तिथि को मान्य किया है।

काव्य का प्रारम्भ कवि ने मंगलाचरण से किया है जिसमें उसने राधा और सरस्वती की श्लेष से सुन्दर वंदना प्रस्तुत की है। उसके पश्चात् कृष्ण, महेश, गणेश, गुरु, जगदम्बा तथा पिता का स्मरण किया है। कवि ने श्रीकृष्ण को आलम्बन बनाकर उनके चरण, नरणनख, चरणभूषण, जंघा, नितम्ब, कटि, काछनी, नाभि, त्रिबली, रोमराजि, उदर, भृगुलता, वक्षस्थल, वनमाल, कर, लकुट, बाँसुरी, कंठ, कंठमाल, चोटी, चिंबुक, अघर, दशन, रसना, मुखसुवास, हास्य, नासिका, कपोल, कर्ण, कर्णाभूषण, नेत्र, चितवन, भृकुटी, भाल, मुखमण्डल, मोरमुकुट, गति, पीटपट तथा सम्पूर्ण मूर्ति का विशद काव्यमय चित्र प्रस्तुत किया है। प्रधान रूप से सभी रीतिकालीन कवियों ने नायक की अपेक्षा नायिका के नखशिख का बड़े ही विस्तार से कलात्मक चित्रण किया है। किन्तु महाकवि ग्वाल के सम्बन्ध में विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि उन्होंने प्रस्तुत रचना में नायक के नखशिख का बहुत ही सुन्दर, ललित, मधुर तथा कलापूर्ण चित्र अंकित किया है। भाषा काव्यानुरूप है। इस नखशिख वर्णन में शृंगार की अपेक्षा भक्ति की प्रधानता दिखाई पड़ती है। कायिक सौन्दर्य के साथ ही अन्तर्वर्ती सौन्दर्य का उद्घाटन करना भी कवि का लक्ष्य रहा है। एक उदाहरण प्रस्तुत है।

मीन मृग खंजन खिस्यान भरे मैन बान,
अधिक गिलान भरे कंज फल ताल के।
राधिका छबीली की छहर छवि छाक भरे,
छैलता के छोर भरे भरे छबि जाल के।
ग्वाल कवि आन भरे सान भरे तान भरे,
कछु अलसान भरे भरे मान भाल के।
लाज भरे लाग भरे लोभ भरे शोभ भरे,
लाली भरे लाड़ भरे लोचन है लाल के।

३. गोपी पचीसी : यह काव्य की पचीसी परम्परा में पच्चीस कवित्त सर्वयों का कृष्ण भक्तिपरक एक उपालम्भ काव्य है। इसके रचना काल के सम्बन्ध में अलग से कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता है। 'भक्तभावन' में नखशिख के बाद यह रचना संगृहीत है। अतएव पूर्वापर क्रम के अनुसार सम्भव है 'नख शिख' के बाद इसकी रचना की गयी हो।

कृष्णमित्र उद्धव जी ब्रज में ब्रजबालाओं को ज्ञानयोग की शिक्षा प्रदान करने आते हैं। किन्तु बेचारी गोपियां साक्षात् रसरूप श्रीकृष्ण की रसिक लीलाओं को छोड़कर उद्धवजी के सुष्का शापयोग के उपदेश को ग्रहण करना नहीं चाहती हैं। उन्हें तो वहाँ उद्धवजी की उपस्थिति ही मम न्तिक पीड़ा का अनुभव कराती हैं। वे उद्धव के व्याज से कृष्ण को उपालम्भ देती है। देखिये––