पृष्ठ:भक्तभावन.pdf/२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
भूमिका : १९
 

६. रामाष्टक : हमारा अनुमान है कि भक्ति की लोक सामान्य धारणा के कारण 'कृष्णाष्टक' के साथ ही साथ कवि ने 'रामाष्टक' की भी रचना की होगी। इसमें भगवान राम की स्तुति की गयी है। अपने आपको पापी मानते हुए अन्य भक्त कवियों के समान ही ग्वाल भी प्रभु राम को उसी प्रकार की चुनौती देते हुए दिखाई पड़ते हैं––

गीधे गीधै तारिकें सुतारिकै उतारिकै जू;
पारिके हिये में निज बात जटि जायगी।
तारिके अवधि करी अवधि सुतारिबे की,
विपति विदारिवे की फांस कटि जायगी।
ग्वाल कवि सहज न तारिबो हमारो गिनो,
कठिन परेमी पाप पांति पढ़ि जायगी।
यातें जो न तारिहों तिहारी सौंह रघुनाथ,
अधम उघारिबे की साख घटि जायगी।

भक्ति की अनन्यता और तल्लीनता इसमें दिखाई पड़ती है। भाषा भी मंजुल, मनोहर और भाववाही है। इसके रचनाकाल का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। किन्तु इसका एक कवित्त 'रसरंग' में कवि ने उद्धृत किया है। 'रसरंग' का रचनाकाल १९०४ वि॰ है। अतएव कहा जा सकता है कि इसकी रचना इससे पूर्व हुई होगी।"

७. गंगास्तुति : यह भी भक्तिकाव्य है और इसमें गंगा की स्तुति की गयी है। गंगा के माहात्म्य का वर्णन करना ही कवि का उद्देश्य रहा है। सम्भव है ग्वाल ने पनाकर की गंगा लहरी से प्रेरणा लेकर इसकी रचना की हो। एक उदाहरण प्रस्तुत है :––

आई कढ़ि गंगे तू पहार बिंद मंदिर ते,
याही ते गुविंद गात स्याम हर औरे हैं।
फेर घसि निकस परी है तू कमंडल तें,
याही ते विरंचि परे पीरे चहुँ कोरे हैं।
ग्वाल कवि कह तेरे विरही विरंग ऐसे,
गिरही तिहारे तें बखाने रिस जोरे हैं।
स्याम रंग अंगन तो चाहिये तमोगुनी को,
पारी सीस ईस यातें अंग अंग गोरे हैं।

इसका एक छन्द रसिकानन्द में २११३३ और एक छन्द 'रसरंग' में ८७० प्राप्त होता है। अतएव यही कहा जा सकता है कि सं॰ १८७९ वि॰ से १९०४ वि॰ के मध्य इसकी रचना हुई होगी।

८. वशमहाविद्यान की स्तुति : संस्कृत साहित्य में देवी-देवताओं को लेकर स्तोत्र काव्य लिखने की परम्परा रही है। इसी परम्परा को लेकर ब्रजभाषा में लिखी गयी यह रचना प्रतीत होती है। इसमें महाकाली, तारा, विद्याषोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता धूमावती, बगुलामुखी, मातंगी, कमला की वन्दना में कवित्त लिखे गये हैं। रचनातिथि के