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२० : भक्तभावन
 

सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है किन्तु भाषाशैली के आधार पर यह कवि के प्रौढकाल को रचना ज्ञात होती है। ताराजी की वन्दना इस प्रकार की गयी है :––

दशन दुभुज अघकर्त्री अर्घ खड्ग खुल्यो,
वाम अघ कर में कपाल है विराजमान।
ऊर्ध्वकर नीलकंज चारोकर अरुनाई,
नील धन दुति देह दन्त खर्व कुन्द जान।
ग्वाल कवि जिह्वा दीह तीन द्रग शशिभाल,
बद्धित सुकेश शशि पांचन सों शोभवान।
बहुमुख सर्प सेत शीश पें सो छत्र रहे,
द्वितीया श्री ताराजी को ऐसे करो नित ध्यान।

९. ज्वालाष्टक : ज्वालादेवी की वन्दना में यह अष्टक काव्य लिखा गया है। इसका रचनाकाल भी प्रामाणिक रूप से उपलब्ध नहीं होता है। किन्तु रसिकानन्द, गुरुपचासा और कवि-हृदय विनोद में भी इसके छन्द प्राप्त होते हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि इसके छन्द सं॰ १८७९ वि॰ और १९१ वि॰ के मध्य कभी लिखे गये होंगे। प्रस्तुत कवित्त में ज्वाला देवी के स्वरूप का कषि ने बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है––

एरी मात ज्वाला जोति जाला की कहो में कहा,
कौतुक विशाला गति अद्भुत तेरी है।
मानतें पाशाम तेसु चक्रहू ते पुष्ट झार,
दुष्टन के दल में दबरि होत बेरी है।
ग्वाल कवि दासन को शीतल सदाई ऐसी,
जैसी है सु तैसी सो को क्यों मति मेरी है।
चंदन सी चंद्रमासी चंद्रिका ते चौगुनी सी,
जरूसी हिमंत सी हिमालय सी हेरी है।

१०–११. प्रथम तथा द्वितीय गणेशाष्टक : ये भी भक्ति की रचनाएं हैं। दोनों की ही रचनातिथि का कोई प्रामाणिक आधार प्राप्त नहीं होता है। दोनों अष्टकों में गणेशजी की पारम्परिक रूप से ही वन्दना की गयी है। प्रथम गणेशाष्टक के आठों कवित्तों में निम्न पंक्ति सर्वत्र प्रयुक्त हुई है––

"रीझैं बार-बार बार लावे नहिं एको बार,
ऐसो को उदार जग महिमा अपार हैं।"

द्वितीय गणेशाष्टक के आठों छन्दों की अन्तिम पंक्ति इस प्रकार है––

"सुजस सुवासन के दायक हुलासन के,
नाम के प्रकाशन गनेश महाराज है।"

ऐसा प्रतीत होता है कि ग्वाल ने कवि जीवन के प्रारम्भ में विघ्न विनाशक देवता गणेशणी की