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भूमिका : २३
 

को लेकर लिखे गये कवित्त हैं। अन्त में एक कवित्त दीवाली का देकर समापन का दोहा दिया हुआ है। कवित्त इस प्रकार है :––

छाई छवि छिति पे छहर छवि छैलन की,
छमके छपाकर छटा सी बाल त्यारी पे।
उन्नत अनार अलगारन अगारन पे,
आसमान तार उठे ऊपर अगारी पे।
ग्वाल कवि जाहर जवाहर जमत जोर,
जागत जुआरी जाम जाम जर जारी पे।
दीप दीप दीपन की दीपति दवारि बाई,
जंबू दीप दीपन में दिपति दीवारी पे।

जगदम्बा राधा की स्तुति करते हुए कवि ने ग्रन्थ को समाप्त किया है :––

श्री जगदम्बा राधिका त्रिभुवन पति की प्रान
तिनके पद में मन रहे श्रीसिव दीजै दान।
इति श्री ग्वाल कवि कृत भक्तभावन ग्रन्थ सम्पूर्णम्।

इनमें से कुछ ग्रन्थ स्वतन्त्र हैं और कुछ प्रथम बार 'भक्तभावन' में ही संगृहीत किये गये हैं। अतएव 'भक्तभावन' ग्वाल कवि के समस्त भक्ति सम्बन्धी फुटकर ग्रन्थों का एक संग्रह मात्र है।

समीक्षासार

उपर्युक्त सभी ग्रन्थों का सम्यक् अनुशीलन करने के बाद हम निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुँचते हैं :––

१. प्रायः सभी कृतियां राधाकृष्ण को ही आलम्बन बनाकर लिखी गयी है यद्यपि कही-कहीं कवि की भावात्मक विह्वलता भी दृष्टिगत होती है परन्तु मूलतः शृंगारी कषि होने के कारण ग्वाल के हृदय में भी अन्य रीतिकवियों की भांति भक्ति की कोई स्थायी पक्षति स्थापित नहीं हो सकी। वैसे ग्वाल निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित थे किन्तु अपनी समसामयिक परिस्थितियों से मजबूर होकर उन्हें राधाकृष्ण से माफी मांगनी पड़ी थी––

श्री राधा पद पदम को, प्रनमि प्रनमि कवि ग्वाल,
छमवत है अपराध को, कियो जु कथन रसाल।

२. इन भक्तिपरक रचनाओं का सृजन कवि ने प्रायः दो कारणों से किया होगा। पहला कारण तो यह है कि रीतिकाल के पूर्व भक्ति का जो स्फीत और अखण्ड प्रवाह दिखाई पड़ता है उसके सर्वथा प्रतिकूल जाने का साहस अन्य रीति-कवियों की भांति ग्वाल का भी न हुआ। दूसरा कारण यह है कि जीवन की अतिशय रसिकता और शृंगारिकता से ऊबकर मन की विश्रांति के लिए कवि ने भक्तिपरक रचनाएँ की जो मन के अवसाद से पूर्ण हैं तथा भक्ति के सहजोल्लास, गहन आत्मनिवेदन अथवा आत्मसमर्पण के भाव से प्रायः रहित है।