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२४ : भक्तभावन
 


३. भगवान् के प्रति रागभावना से अनुप्राणित होने के कारण अपनी अभिव्यक्ति में कवि सच्चाई को लिये हुए है। किन्तु सच्चाई और अविचल निष्ठा पर्याय नहीं है। अतएव ईमानदारी के होते हुए भी ग्वाल को भक्तिभावना पूर्ववर्ती भक्त कवियों सी अविचल निष्ठा, गहनता और लोकव्यापी विस्तार को प्राप्त नहीं कर सकी।

४. रीतिकाव्य की अभिव्यंजना प्रणाली और प्रतीक योजनाओं को न्यूनाधिक अंश में ग्रहण करते हुए भी ग्वाल का दृष्टिकोण इन रचनाओं में इस प्रकार व्यक्त हुआ है कि उनके भक्त होने में किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता। दार्शनिक शब्दावली में कहा जा सकता है कि इनका प्रेम चिन्मुख है तो रीतिकवियों का जड़ोन्मुख।

५. संस्कृत-साहित्य में देवी-देवताओं के स्तोत्र लिखने की परम्परा रही है। महाकवि ग्वाल पर भी इसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। उन्होंने भी लगभग सभी लोकप्रचलित देवी-देवताओं को लेकर छंद लिखे हैं जिनमें उनकी स्तुति और वंदना की गयी है। इससे भी कवि की उदार भक्तिपूर्ण दृष्टि का ही परिचय प्राप्त होता है।

६. प्रायः सभी रीतिकालीन कवियों ने कवित्त-सर्वयों और दोहों में ही रचनाएँ प्रस्तुत की है। ग्वाल ने भी इन सभी कृतियों में इसी शैली को अपनाया है। ऐसा प्रतीतक्षेता है कि ग्वाल ने 'भक्तभावन' संग्रह भक्तों के लिए किया था। इसी कारण आचार्य होने के बावजूद इन कृतियों में पांडित्य-प्रदर्शन करना उनका लक्ष्य अथवा उद्देश्य नहीं है और न ही रीतिकालीन परम्पराओं का पूर्ण निर्वाह करने में ही कवि सजग दिखाई देता है।

७. इन सभी रचनाओं में संस्कृत, अरबी, फारसी, पंजाबी, खड़ी बोली आदि की शब्दावली का प्रयोग कवि ने निःसंकोच रूप से किया है। विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि ब्रजभाषा के परम्परागत छन्दों-कवित्त-सर्वयों-को खड़ी बोली में ढालने का कवि ने स्तुत्य प्रयास किया है। उर्दू-फारसी मिश्रित खड़ी बोली का प्रारम्भिक स्वरूप कवि की 'कृष्णाष्टक' आदि कृतियों में प्राप्त होता है। ऐसी कृतियों का खड़ी बोली के विकास की दृष्टि से ऐतिहासिक महत्त्व स्वीकार किया जा सकता है।

८. कल्पना वैभव और चित्रयोजना का वैसा उत्कृष्ट रूप इनकी रचनाओं में उपलब्ध नहीं होता है जैसा कि देव, बिहारी, पनाकर आदि कवियों की कृतियों में मिलता है। किन्तु उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, यमक, श्लेष आदि अलंकारों के प्रयोग भावाभिव्यक्ति में बड़े ही मनोश और मनोहारी ढंग से हुए हैं।

९. ग्रन्थों का संकलन स्वयं कवि ग्वाल द्वारा ही किया गया है। अतएव इसके पीछे ग्वाल का दृष्टिकोण संभवतः यही रहा होगा कि उनके आठ-आठ छन्दों (अष्टकों) वाले छोटे-छोटे ग्रन्थों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व कालावधि में कहीं समाप्त न हो जाये। इसीलिए उन्होंने सबको एक साथ संगृहीत कर दिया है और भक्ति का स्वर प्रधान होने के कारण उसका नाम 'भक्तभावन' रख दिया।

१०. यद्यपि हिन्दी साहित्य-जगत् में ग्वाल की ख्याति एक सर्वांग निरूपक आचार्य के रूप में रही है किन्तु 'भक्तभावन' के सम्यक् अनुशीलन के बाद कवि रूप में भी ग्वाल