कवित्त
देव मारतंड की तनूजा तीर तेरे एक। कौतुक लख्यो मैं असि अद्भत कहौं कैसे।
बढ़ई विचारो छील छील के बनावे वेश। चित्रकारी चित भाव निजगोकेसें।
ग्वाल कवि तेरे तोय ऊपर तरावे ताहि। धावे लेन देवता विमानन तें लोकँसे।
नाव होत गोविन्द लकुट पतवार होत। भुजाचार चंपू होत चित्रकार चौंके से॥२६॥
कवित्त
गोरी गरबोली जाको गवन गयंद को सो। गरै मुकुताहल को गजरा निराला वह।
कज्जल कलित द्रम ललित लुनाई भरे। वलित उरोजनतें मृगमद आला वह।
ग्वाल कवि रविजा तिहारे तोर न्हाई आई। धाइ लेन देवन की अवली विशाला वह।
शीश[१] दीप मृग ये पहुँचि पहिलेई गये| पा, स्याम रूप हे सिधारी नव बाला वह॥२७॥
कवित्त
आयो तटनी के रवि तनया तिहारे वह। वापस पियासो पय पियत अकूत है।
त्यौंही भुज चार है विमान चढ़ि धार चल्यो। अध मग पातकी परममहा धूत है।
ग्वाल कवि तापें आय छाया परी ताकी जोर। बनिके बिहारी की करत करतूत है।
एक कहे भूत है, अभूत कहे कोऊ एक। सूत कहे सो विसै सिधार्यो नन्दपूत है॥२८॥
कवित्त
जमुना के वास में लखै तरङ्ग ता समेजु। महत पवास में करै गोविन्दा जा समें।
सौरभित वास में भुलावे रंग रास में तु। ओ गुलाबपासमें धरे गुलाब पास।
ग्वाल कवि छकित गिलास में सुधा समेसों। हाँस में विकास में रहे न हो सुवास में।
वदन प्रकास में सुरीन के हुलास में ज्यों। राखत विलास में सुरों के आम खास॥२९॥
कवित्त
बैठ्यो तटनी के यह भाखत तिलकिया जो। येरे राहगीर पास आय जल छू जाते।
आचवन किये महा महिमा मही में होत। जोना फल होत और देवन की पूजा तें।
ग्वालकवि कोतुक विशाल देखि हालाहाल। रसिक बिहारी भयो जात अब दूजातें।
कीरति अखंड होत तुजक प्रचंड होत। होत है अदंड मारतंड की तनूजा ते॥३०॥
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कवित्त
कोतुक विशाल एक आयो देखि दूर ही तें। लाग्यो बात कहन विवेकता छुटी भई।
टहले हो बाग में बहारन बिलोकिबें को। आइ पौन जमुना को औरतें जुटी भ।
ग्वालकवि दवरि दरीन में दुर्यो में जाय। छाई रेनु अखिलन ठौर ही छुटी भई।
भाली भयो मोहन लता जे पटरानी भई। भोर भये मुकुट लंका लकुटी भई॥३१॥
- ↑ मूलपाठ. शिश।