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१० : भक्तभावन
 

कवित्त


कीरति इनामें होत धवलसु धामे होत। द्वारन दमा होत देह मंजुता में लहि।
चाह घरचा में होत सुरबनिता में ताकी। सुमति सभा में होत तेज पुंजता में गहि।
ग्वाल कवि कामे परिपूरन सदा में होत। कुमति तमामें होत धीर पुंजता में रहि।
बंधु बतरामें होत जग में प्रनामे होत। क्लेश कतलामें होत जमुना कला में कहि॥५०॥

कवित्त


लखि के चरित्र जमुना के भयो नाके अति। कहे चित्रगुप्त जमबात सुनि भीजकी।
अविधि सराजी पापो घोर तापी तिन्हे भेजे। पुरमापो यौं दिखावे बाजी जीत की।
ग्वाल कवि यातें हौंस उड़िगे मुसदद्दीन के। कहत सरोष भई समें बिपरीत[१] की।
रही भे दफ्तर जु बद्दी भाल बद्दी भई। गद्दी भई अफ्ततिहारी राजनीत की॥५१॥

कवित्त


भाखै चित्रगुप्त सुनि लीजै अर्ज जमराज। कीजिये[२] हुकुम अब मूंदे नर्क द्वारे कों।
अधम अभागे ओ कृतघ्नी कूर कलहीन। करत कन्हैया कर्नकुंडल संभारे कों।
ग्वाल कवि अधिक अनीते विपरीत भई। दीजिये तुड़ाय वेगि कुलुक किबारे को।
हमुना लिखेगें बही जमनाजु खैहैं हम। जमुना बिगारे देत कागद हमारे को॥५२॥

कवित्त


रविजा तिहारे तीर पापी घोर तापी ताकी। मुकति विचित्र देखी जाहिर जहूर सों।
चार मुख वारो मुख चारके चढाय हंस। करिकें चलो को चल्यो चौंकि चित चूर सों।
ग्वाल कवि अचको उतारि धरि वृषभा पर। ले चलें त्रिलोचन के संभु सुख मूर सों।
चार भुजवारों भुज चार के सुचारन में। गरुड चढ़ायगयो गजब गरूर सों॥५३॥

कवित्त


एरो मात जमुना न दोष है तिहारो कछु। लिख्यो सो भयोई भाल विधिना उमंग में।
तेरे तीर आयो स्याम कामाधिक रेख है। तेतों करिदीनी स्यामताई सब अंग में।
ग्वाल कवि कहै भुज द्वे को भार मानत हो। तेने भुजचार करि दीन्हेई उचंग में।
मैं तो चह्यो संग एक रानी को तज न जौलौं। तौलौं करि आठ पटरानी मेरे संग में॥५४॥

कवित्त


ख्याल जमुना के लखि नाके भयो चित्रगुप्त। बैन करुना के बोलि मेरी मति ख्वे गई।
कौन करे कर में कलम कोन काम करे। रोस कों दवायात सो रोसनाई है गई।
ग्वाल कवि काहे ते न कान दें जमेश सुनो। नौकरी चुकाई कहा तेरी आँख च्वे गई।
लेखे भये ड्योढ़े रोजनामा को परेखा कौन। खाता भयो खतम फरद रद्द व गई॥५५॥


  1. बिपरित
  2. किजीये।