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१४ : भक्तभावन
 

कवित्त


राजनीत रावरी न चलिहै हमारे संग। रद करि देहो पेलि पलके प्रसंगते।
दफ्तर बिहद्दी मुत्सद्दिन के रद्दी करि। नद्दी में सुरद्दी करो गद्दी बांधि संगते।
ग्वाल कवि अबलौं न जानी रे अयानी मति। मालुम भई न तेरे कुटिल कुढंगते।
जोरिके अभंग जंग अंग जमराज तेरे। भंग करि देहौं जुरि जमुना तरंग तें॥७४॥

कवित्त


भानु की तनैया तोय तेरो पियो वच्छएक। ताकी जननी कों दुह्यो भूख नसिबें कों जब।
ताही ग्वार पास आय दीन कह्यो भुखे हम। दियो पय ताही पर्म धर्म लसिबें कों जब।
ग्वाल कवि ताकी परछाई परी पातकी पें। आये पारशद.से विमान कसिबे को जब।
सुरभी समेत वच्छ ग्वारिया पिवैया जुत। पातकी पधार्यो हरिलोक बसि को जब॥७५॥

कवित्त


अवनी को मालसी सुबालसी दिनेश जानि। लालसी ह्वै कान्हकरी बालसुख थालसी।
नकन कों हालसी बिहालसी करैया भई। धर्मन को उथित सुढालसी विशालसी।
ग्वाल कवि भक्तन को सुरतरु जालसी है। सुंदर रसालसी कुकर्मन को भालसी।
दूतन कों सालसी जु चित्र कों दुसाल सी है। जमको जंजालसी
व्यालसी॥७६॥

कवित्त


पातको पुरानो घोर घातकी धने नकामें। तात की न मात को करी न सेवा साको है।
गंग में न न्हायो मैं न रंग में भुलायोतिय छायो अंग अंग मद जोबन नशा को है।
ग्वाल कवि कारन भयो न तरिबे को कछु। धारन कियो मैं इक पूरपन पाको है।
मों सों सुनि यार है न रोसो करिबे में कछु। अब तो भरोसो जियरा में जमुना को है॥७७॥

कवित्त


भानु भानु नंदनी प्रभान की परम पाति रावरो सुजस दीप दीप माँहि है रह्यो।
पुंडरीक आदि भयो फूलन में बानिक सो। विबुधन बोच बामदेव रूप ज्वै रह्यो।
ग्वाल कवि राजन के रसना गिरा द्वै रह्यो। गायन के गोरस सरस रस च्वै रह्यो।
अंबर में चंद भयो अवनि में गंग भयो। फोरि के पताल फेर फनपति है रह्यो॥७८॥

कवित्त


कान सुनि जाफत कुलंग चल्यो ताही ठोर। बीच वन पापी पर यो काय पजरे परी।
तामें तें उँचहि अस्ति टूक पर यो दूर जाय। लियो झुकि धायो जहाँ जमुना भरे परी।
ग्वाल कवि वार्ते वह टूक छुट्यो धार बीच। चढिके विमान चल्यो चौकनि खडे परी।
पापी उत स्याम भयो पच्छी इत बोले हाय। जाफत हू छूटी और आफत गरै परी॥७९॥