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१६ : भक्तभावन
 

कवित्त–करुण रस


काहू एक देश तें पुरुष तिय बेटा युत। आयो न्हाइवें कों तहाँ जमुना नलौं गयो।
पूत पहिलेई पिल पैठिगो प्रवाह बीच। ह्वै करि गोविन्द धर्मधाम कों भलो गयो।
ग्वाल कवि नेक में न देखि परयों ताकों। तब बोल कढ़े ऐसे मन मानिक छलो गयो।
तात मात रोऊ खड़े तीर में पुकारे हाय। हायसुत मेरे आहि कित ले चलों गयो॥८५॥

कवित–रौद्र रस


घातकी कुचाली अति पातकी कलकी कूर। पाई कातिकी, जमुना में वह पैठ्यो जाय।
फेर कछु द्योसन में देह उन त्याग्यो तब। आये दौरि दूर उनसों ही जब पैठ्यो जाय।
ग्वाल कवि क्रुद्ध के विरुद्ध जुद्ध कियो जोर। मीस मोस-मारे विसमाई में अमेठ्यो जाय।
जीति दूत राजकों, चुनौती जमराज कौं दे। ऐसो वीरराज जदुराज संग बैठ्यो जाय॥८६॥

कवित्त–वीर रस


दीह दुराचारी व्यभिचारी अनाचारी एक। न्हाइ जमुना में कह्यो कैसे मैं उधरिहों।
फेर प्रान त्यागे भुज चार भई ताही ठौर। आयो जमदूत कहे तोहि में पकरिहों।
ग्वाल कवि एती सुनि भाग्यबलि भाख्यो वह। निज भुजदण्ड को घमण्ड अनुसरिहो।
तोरि जम दंड को मरोरि बाहु दंड को सु। फोरि फारिमंडल अखंड खंड करिहों॥८७॥

कवि


अधम अभंगी अघ ओपन के संगो दीइ। धोई देह दौरि जमुना में बोर ताब होत।
बीते वह बासर प्रसंस हंस दूर भयो। है गयो मुकुन्द तई काहूकी न दाव होत।
ग्वाल कवि भनत स लेन आये दूत ताहि। देखि तिन्हे सों ही जाय जुट्यो चित चाव होत।
जंग बढ़ी तिन सों उमंग चढ़ी अंगन में। रंग बड्यो हिय में सुरङ्ग मुख आव होत॥८८॥

कविरा–भयानक रस


पूरि रह्यो पातिक में कल ही कुचालो कूर। काया भई कष्टित मलीन तनु भारे कों।
देखि जम सों ही जमुना को लियो नाम उन। होत अंतकाल नंदलाल रूप धारे कों।
ग्वाल कवि त्यों ही जम भाख्यो हाय हाय करि। काउ जिन जाउ जो गये तो मारि तारे को।
दूर करि देगो दीह राखन दि करि। चूर करि देगो अंग अखिल हमारे को॥८९॥

कवित–बीभत्स रस


पापी एक आइ के नहायो जमुना में जोर। ह्वे के भुजचार त्यों विमानन की सेज होत।
आये जमदूत मिले पारशद बोचो बीच। खींचे होत जुद्ध जीतेंगे भले जे होत।
ग्वाल कवि भाखे उन इतन के फोरे शीश। श्रोन सिन्धु धारे बहि बहि के मजेजे होत!
जम को जहर मानों जैयद कहर भय। हहर हहर चित्रगुप्त के करेजे होत॥९०॥