कवित्त-शिशिर ऋतु
सरसी शिशिर रितु दासीसु दीपन में। परसी गोविंद पुर भोतर अमल भल।
बीच देवतान के विराजे वर बानिक सों। मानिक के महल गलीचा जोति झल झल।
ग्वाल कवि दीट दर परदे पर है दिव्य। चन्दन पियूषचन्द बदनी अचल चल।
होत छवि नीकी वृषभानु नन्दनी को सौंह। भानु नन्दनी को ते तरंगन कों पल पल॥१०३॥
कवित्त
भानु नन्दनी की तकि तकि के तरगे तेज। सोवे सेज सौरभ मजेज को सी सी सी।
शिशिर बहार में जगी है जोति जगमग। सुद्धी भई सुमति विरुद्धमति पी सी सी।
ग्वाल कवि आगे में नकासी कल गावे गान। परदा अनूप तेज तापिनी जु दी सी सी।
संग में लसी सी तिय वदन शशी सी दुति। छाके सुधा सी सी मिटि जात मुख सी सी॥१०४॥
इति षट्ऋतु वर्णन
अध फुटकर-कवित्त
चमकी चहूँधा दीह दीपन में दिव्य दुति। जमुना जगी है जोर जुलम न भारी तें।
अधम अजापी महा पापी नीच मीच। समैं परी उड़िरेनु मीच नैन उर धारी तें।
ग्वाल कवि आये पारशद ले विमानन कों। मारि जमदूतन विदा किये अगारी तें।
जम की जमैयत जरन सागी समकीन। दम की रही न सुधि धमकी तिहारी तें॥१०५॥
कवित्त
भूलहू न जातो एको भुनगा हरी के मौन। कैसे त्रिषावन्तन की तिरषा बुझाती ये।
सागर अपार में नहीं ये बेसुमार सब। कासों मिलि मिलि के वहाँ लौं मिलि जाती ये।
ग्वाल कवि धरम धुजान फहराती बेस। कैसे हूँ न वरन विवेकता निभाती ये।
जीवती न गोपिका गोविन्द के वियोग बीच। जो न जमुना की जोर जेब दरसाती ये॥१०६॥
कवित्त
सोरके सराक दे सरक सुख जातो सब। दौरिके दरेक दुख बढ़ि जातो कल में।
उड़ि जातो तूल सो तजक तन तन तोरि। छाय जातो मेल मूल मुखन अमल में।
ग्वाल कवि जोर वैकुण्ठ जातो खाली होय। हाली जमलोक भरि जातो भूरि भल में।
होती जो न रविना तो फवि जातो पाप पूर। नवि जातो कर्म धर्म दबि जातो पल में॥१०७॥
कवित्त
छिपतो कहाँ धौं जाय कालिया कुटुम्ब जुत। कैसें धर्म सीमा कुल ही में चलि आवती।
पावते न कृष्णचन्द्र कालीनाथ[१] पदवी को। फेर काहू रीत तैंने खेल विधि भावती।
- ↑ मूलपाठ : कालि।