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अथ श्री गोपी पचीसी ग्रंथ प्रारंभ

गोपी वचन उद्धव प्रति
कवित्त

जैसों कान्ह जान तेसो उसव सुजान आयो। है तो पाहुने सेपर प्रानन निकारे लेत।
लाख वेर अंजन अंजाये इन हाथन तें। तिनकों निरंजन कहत हाय झूठ धारें लेत।
ग्वाल कवि हाल ही तमालन में तालन में। ख्यालन में खेले है कलोल किलकारे लेत।
हया न परचे री पर चेरी संग परचेरी। जोग परचे इहाँ भेज परचे हमारे लेत॥१॥

कवित्त

आपनी ही सूरत को साजिकै सिंगार सब। भेज्यो सखा सेठ वाकूमंत्र अति भारा दै।
जानी हो कि मेटि है अंदेस दे संदेश यह। लायो सो आदेश के विचारन नगारा दे।
ग्वाल कवि कैसे बज वनिता बचेगी हाय। रचेगी उपाय कौन द्वारनि किवारा दे।
चौगुनी दवागिन ते देह विरहागिन हो। सोतो करी सौ गुनी ये जोग व्रतधारा दै॥२॥

कवित्त

यो तेरे पार ऐसे है है रिझदार जोएँ। जानती विचार तोपें सूयो होन बायबो।
करती उपाय भांति भाँति के सुभाय भाय। केती वही बात हुती वाकों अटकायबो
ग्वाल कवि पीठन पे एक एक हांडी बांधि। गीके मनमोहनकों करती रिझाइबो।
भाते कहूँ कोऊ बहरूपिया तलास करि। सीख लेती हम हू सब कूबर बनाइबो॥३॥

कवित्त

कैसे के कन्हाई की बखाने चतुराई काल । भेजे जो मिठाई तो कभू न भारि है गरो।
सारी जरतारी आंगी ओढनी किनारी वारी। धारि धारि फारिहै न तन रहि है भरो।
ग्वाल कवि भूषन हू भेजिहै तो दृष्टि जैहैं। हमें उर धारि के विचार है कियो खरो।
भेजा मथुरातें नई जोग की सौगात सखी। खातिर जमासों खाउ पहिरो खुसी करो॥४॥

कवित्त

गोपिन के काज जोग साज दे पठायो ऊधौ। आवत न लाज ढीठ प्रानन पियो चहै।
बरो हा हा वियोग विरहागिन-भभूकन में। तापर सलूक लूक लाखन दियो चहै।
ग्वाल कवि कौ कान्हर की कुटिलाई कहै श। कटे में लगावें नौन काटन हियो चहै।
कंस की जो चेरीताको चेला भयो हाय देया। हमें भेजि सेली चेली आपनी कियो चहै॥५॥