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३२ : भक्तभावन
 


कवित्त


कूबरी कसाइन के रस की रसाइन में। शोभ सरसाइन में रहत खड़ा भयो।
प्रीति अज बालन की नित उठी ख्यालन की। हंसनि रसालन की भूलि कैं छडा भयो।
ग्वाल कवि ऊधौ तुहु बिगर्यो कुसंग परि। स्याम तो लबार अरु निलज बड़ा भयो।
आप करे जारी हमें जोग जरतारी भेजी। देइ कहा गारी भलो चीकनो घड़ा भयो॥६॥

कवित्त


किये है करार सो विसारि दिये दगादार। नंद के कुमार संग को संजोगिनी बने।
कौन लेके तोहि ऊद्धव पठायो इहाँ। कैसे कही वाने हाय लंक लोंगिनी बने।
ग्वाल कवि यातें इक बात तू हमारो सुनि। चुनिके कही है यह तोय भोगिनी बने।
कूबरी को कूब काटि लाय दे सिताबी हमें। टोपी करें ताकी तब गोपी जोगिनी बने॥७॥

कवित्त


कहाँ गई अकल तिहारी अब ही तें ऊधौ। सूधो पंथ छाँड़ि टेढ़ौ पंथ क्यों गहत है।
स्याम जाको रंग रूप काम तें करोर गुनो। नैन सैन बैनहू सुधा में उलहत है।
ग्वाल कवि जाको निराकार तूं बतावत है। कैसे हम माने निरो झूठ ही लहत है।
जूठन की खानहारी कुविजा नकारी वह। करी घरवारी तक ब्रह्म तू कहत है॥८॥

कवित्त


रूप में न कसर न राग में कसर इहाँ। लाग में न कसर लाजहू की घेरी है
रंग में न कसर न कसर उमंग में है। प्रन के प्रसंग हू में परम घनेरी है।
ग्वाल कवि हाव में न भाव में कसर इहाँ। चाव में न कसर चलाँक बहुतेरी है।
तीन ही कसर धो काहू के न कूब इहाँ। नाइन न जात अरु काहूको न पेरी है॥९॥

कवित्त


कौन चतुराई करि जाइके कन्हाई उहाँ। कूबरी लुगाई करी और तो झुरो लगी।
देवकी की सेवकीन सेवकी पिता की करी। नाइन सुता की भली गांठ सी धुरी लगी।
ग्वाल कवि ऊधो जोग पतियाँ की बतियाँ ये। बिछुरी हुति न विस बुझई धुरी लगी।
लोक लाज लोपी प्रीत रोपी देह ओपी। तऊ हम गोपी हाय स्याम को बुरी लगी॥१०॥

कवित्त


कौन दिन कान्ह ने चढ़ाये प्रान करध को। कियो कब इंद्रिन को सोधन सुधार है।
कोन से सघन बन बैठिकै समाधि साधी। कौन से गुरु तें शिख्यो जोग को विचार है।
ग्वाल कवि ऊधो जाहि निरगुन कहे है तु। सो तो वह औगुन को अखिल अगार है।
आवै को करार कियो आयो न सवार महा। मामा दियो मार बन्यो कूबरी को पार है॥११॥