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गोपी पचीसी : ३३
 


सवैया

प्रीत कुलीनन सों निबहै, अकुलीन की प्रीति में अंत उदासी।
खेलत खेल गयो अब ही हमें, जोग पढ़ाय बन्यो अविनासी।
त्यों कवि ग्वाल विरंचिं विचारि के, जोरि जुराइ दई असि खासी।
जेसोई नन्द को बालक कान्ह सु तैसीय कूबरी कंस को दासी॥१२॥

सवैया

नन्द को बालक ही पहिले फिर, कंस की चेरी को चेरो भयो।
ताको परेखो कहा करियें भट, लाखन वार को हेरौ भयो।
त्यों कवि ग्वाल करें तो कहा, फिर सांपिन सौति को घेरो भयो।
नेह छली मनमोहन हमकों अली, भूतको फेरो भयो॥१३॥

सवैया

ऊधव एक सँदेसो यहै, कहि देउ तो बात सयानि करो।
कूबरी कों ठकुरानी करी, सो भले अपनी मनमानि करो।
पे कवि ग्वाल मुनासिब और हू, सोऊ जरूर प्रमानि करो।
लोगडी लूलिन आँधरि कानिन, रानिन में पटरानी करो॥१४॥

सवैया

राधिका के मिलेबे की गुविन्द, कितेक विनान लौ देत हों तासी।
प्रीत करी रस रोति करी, भरी नाहि में हाँ अरु हो हिये नासी।
यो.कवि ग्वाल विलास बढ़ाय के, छोड़ि गयो सिगरी गुन गौसी।
दासी की फांसी फैसाइ गले, अविनासी बन्यो यह आवत हाँसी॥ १५॥

सवैया

तोरि के प्रीत गयो मुल मोरि के, कौन सो नातो तुम्हारो रह्यो।
मोहन से छलिया को भलो अरे, उद्धव तू छलकारो रह्यो
और कहा कहिये कषि ग्वाल जु, नन्दहु ते वह न्यारो रह्यो।
पेरी को नेह नगारो बज्यो, अब काहे को प्यारो हमारो रह्यो॥१६॥

सवैया

ले गयो है जब तें अकरूर, बरी तब तें बहुरंगी भयो।
प्रीतः तजी सब गोपिन तें, इकली कुरिजा को कंगी भयो।
यों कवि ग्वाल हो भाल लिखी, हुतो मीत सही कुंढंगी भयो।
बाप को अंगी भयो, सो हमारो कहो कब संगो भयो॥१७॥