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अथ श्री राधाष्टक प्रारम्भ
कवित्त

नारद विशारद के सरद की हित सिद्धि, शारद शशी में जाकी नख दुति भासनी।
शेष सनकादि अविवाद गुन नाद गावे, शिव की समाधि हिय कमल विकासनी।
ग्वाल कवि कृष्ण महराज के सुखों के साज, सोकी सिरताज रही राजरूप रासनी।
विधि हू की बाधा हरे विरुद्ध हू राधा करें, करुना अगाधा राधा बृन्दावन वासिनी॥१॥

कवित्त

राधा महारानो मनि मन्दिर विराजमान, मुकर मयंक से जहाँ जड़ाव कारी में।
बादले बनाव के बिछौने बिछे बेसुमार, बीजुरी बिरी बनाय देत बलिहारी में।
ग्वाल कवि सुमन सुगंधित केसर ले ले, सची सुकुमार सो सुंधाये शोभ भारी में।
दारा देवतान की दिमाकदार दिस दिस, दार द्वार दौरि फिरे खिदमतदारी में॥२॥

कवित्त

मानिक तें मोतिन तें मंडित मुकेसनते। मृदु मसले दंता की उपमा मिले नहीं।
तापर विराजमान राधा मह महरानी। तहाँ सुरतिय तुंग दौरत ढिले नहीं।
ग्वाल कवि कहे चौंर चन्दरानी लिये रहे। सूर जानी छत्र लैं बिछारी तोहि ले नहीं।
चौमुखा कहा है जहाँ सौमुखा सहस्र मुखा लालमुखा विधि हू को मुजरा मिले नहीं॥३॥

कवित्त

चदन कप अतर मसाले करि। मानिक की गघ खुसबोये रकती रहै।
हीरन हजारन शिलान की दिवाले दीह। तामे प्रतिबिंबन की राशी लगती रहे।
ग्वाल कवि पन्नन के खम्भे नीलमनि छज। मत्त गज मोतिन की प्रभा पगती रहै।
जगा जोति जाहर जवाहर जलूसन में। राधा जगदीसुरी की जोति जगती रहै॥४॥

कवित्त

शेष ओ दिनेश तारकेश अलकेश वेश। सहित सुरेश आगे दौर में ढल्यो करे।
विधि विधि वेदन सों विरद सुनावे विधि। अप्छरा अनन्त नाच नाच उछल्यो करे।
ग्वाल कवि चौरें छत्र पानदान आदि ले ले। गोविन के गोरे जूथ जूथ सों हल्यो करे।
तैतीस करोड़ देवतान की शोभा सानी सदा। राधा महरानी की जलेब में चल्यो करे॥५॥