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राधाष्टक : ३७
 

कवित्त

राधिका दरिद्र दुख दीरष दलन कोजें। दासन पं दीनन पें दया हे अगाधिका।
आधिका रहे न खोज जा के नाम ओज आगे। रोज करि भागें जमराज के उपाधिका।
राधिका सकल सुख कान्ह प्रान प्रानिका है। ग्वाल कवि कहे संभुजाही के समाधिका।
राधिका विविध विधि बाधा बिकुवात की सु। वृंदावन विदित विलासनी श्रीराधिका॥६॥

कवित्त

रामा अभिराम विष्णुवामा वाम वामा स्यामा। कामा अनुसार रूप नामा बहु धारनी।
मंगा गिरा जमुना में प्रमुना विचारो कोक। तिनहीं के तेज की त्रिधार है प्रचारनी।
बाल कवि माया मोह माया महामाया मंजु। गाया करे वेद आदि शक्ति जगतारनी।
ईश की अराधा रूप कान्ह साधा वही। राधा महरानी वृंदा विपिन विहारनी॥७॥

कवित्त

नागन की नरन की बाधा हरे वृंदारक। वृंदारक बाधा हरे वासव विधानी है।
वासव की बाधा विधि विधि की विरोध भरी। वाचत रहत विधि वेद के बखानी है।
ग्वाल कवि कहतःविविध बाधा विधि हू की। वाधत रहत सदा सम्भु गुरु ग्यानी है।
सम्भुहू की बाधा आधा पल में मिटावे[१] कृष्ण। कृष्ण की बाधा हरे राधा महरानी है॥८॥

इति श्री राधाष्टकम्


  1. मूलपाठ––मीटावे।