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कृष्णाष्टक : ३९
 


कवित्त


चाहे तो पलक में खतम कर देवे जहाँ। चाहे तो बनावे लाख करे कौन बंद है।
जिसका मानिंद और दूसरा न कोई कही। तिसकी मिसाल तिसें देवे जो पसंद है।
ग्वाल कवि जिस्से दुष्मनाई क्या करेगा कंस। अज्ल जिसके हाजिर हमेसा हुक्म बंद है।
चार सरवाले से कारिंदे है जिसी के वही। बंदे में मेहरबान नजर बुलंद है॥६॥

कवित्त


लाखो मन सीरनी करी थी ब्रजवासियों ने। कोह पे न छोड़ा कुछ अजब खुरंद है।
दुपत के दुस्तर की शरम हर सूरत सें। राखी आमखास में खयाल खुसवंद है।
ग्वाल कवि चावल सुदामा के नकल कर। महल बनाये सीप जड़ाऊसंद है।
चार सरवाले से कारिंदे है जिसीके वही। वंदे पें मेहरबान नजर बुलंद है॥७॥

कवित्त


दुस्मनों को मारता मुरीदों को संभारता है। खल्क से निकारे ऐसी नेकी पसंद है।
साफ दिल होके इनसाफ करता जो याद। उसे भिस्त देवे ओ कसूर बकसंद है।
ग्वाल कवि जिसके बयान करने के तई। के सर हजार मार तो भी फड़ा फंद है।
चार सरवाले से कारिदे है जिसीके वही। वंदे पे मेहरबान नजर बुलंद है॥८॥

इति श्री कृष्णाष्टक