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अथ रामाष्टक

कवित्त

साधन की संगत न पंगत में बैठे कभू। रंगत तियान की विलोको सवरद की।
किये कबहून छाप जाय आप जोग तप। ताप में तपत पाप पूरन फरद को।
ग्वाल कवि कारन रिझैबे के नरको किये। कौन की सियारस सुनावते दरद को।
जैसो भलो तसो पैन मिलतो तुम्हें जो राम। सो मिटि जाती साख रावरे विरद की॥१॥

कवित्त

कोऊ कछू मांगे अनुरागे जिय लागे जहाँ। रूप रंग रागे दिनरैन रस पोजे जी।
चंचला सी बाला धन जोबन दुशाला आला। चारु चित्र शाला आयु बाढ़े बहु जीजेजी।
ग्वाल कवि अरजी हमारी है विरंचि यह। मरजी विचार कहूँ दूसरी न रोजें जी।
राम अवधेश के गुलाम को तिलाम कोऊ। ताहू के गुलाम को तिलाम कर दीजें जी॥२॥

कवित्त

पूरन पियूख की प्याला भर पोजियें जो। पाने या मजाने वह अमर करेईगी।
देवोदान मान सों अजानन कों जाननकों। कीरति विचित्र देश देशन हरेईगी।
ग्वाल कवि पातें वात विविध विचारो वीन। ना ते पछताइ तेर सुमति लरेईगी।
राम रूप साचें रचि कांचे वाचेगो न यार। या मरे मुकति परेईगी॥३॥

कवित्त

कीजो कछु एते में विरंचि वर वानिक सों। सुमन करे तो रामबाग सुख कंद को।
कोमनद चँहिं करि सरजू नदी के तीर। कोक करियो चाहे करि सरजू सु छंद को।
ग्वाल कवि आशक करे तो रामरूप ही को। भूषन करे तो राम अंगन अमंद को।
बंदर करे तो भले अवधिपुरी को करि। घाम अवधेश को गुलाम रामचंद को॥४॥

कवित्त

गनिका अधम पाय गनिकान जाकी मिले। ताहि पल एक में मुकति दीजियत है।
बालमीक नामे विपरीत के कलामे रट्यो। ताहि निज धामें अपनाइ लीजियत है।
ग्वाल कवि कोतुक विचित्र गति होत जब। पाहन शिला पें पद नेक छोजियत है।
वाते सुनि लाखें मन माते भयो भातेंभांत। यातें राम रावरोई पाछो कीजियत है॥५॥