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गंगा स्तुति : ४३
 

कवित्त

देवधुनि धारा में सनान करिबो हैं तुम्हें। तोपें द्रढ़ न कीजे मत आपकी सुमति को।
आय है न कोऊ फेर रच्छक तिहारो तहाँ। तक्षक प्रतक्ष पूरि जैहै अंग असि को।
ग्वाल कवि गिरिजा विराजि है सु आधे अंग। भंग भोग पेहै और चढ़ेहै बेल जति को।
पहिले मिलत मृगखाल को खिलत फेर। बकसे सिताबही किताब भूतपति को॥६॥

कवित्त

नग करि आप ही सु आये संग होत शीश। ईश पद देके भंग भोग शुभ साज सों।
लिपटे भुजंग रंग सितके भले ई भाव। लोचन सुरंग रंगे असम समाज सौं।
ग्वाल कवि गिरजा अधंग रहे मोह भंग। शृंगपे जु शैल के करावे शैल राजसों।
देवि के तरंग रंग रंग की उमंग गंग अंग करे उज्जल सुजंग जमराज सों॥७॥

कवित्त

कौतुक तिहारे में निहारे भारे देव धुनि। धुनि धुनि शीशदोर दूत भये रोक में।
डोर चित्रगुप्त ने हिसाब के किताब गंज। हारे हम हारे यों पुकारे जमलोक में।
ग्वाल कवि लोचन दरारे के जमेश बेश। पापिन बंधाये औ डराये शोक ओक में।
बंद में उतारे लगे तोर पे सितारे जगे। तोर नाम लेत जिते तारे नभ लोक में॥८॥

कवित्त

केधों सत्वगुन की सत्ता कोई प्रचार चारु। कैधौ चारु चंद्रक के चंद्रिका चलाका है।
केधों छोर सागर को धार है विहार जुत। केवो संभु रजत पहार ही को नाका है।
ग्वाल कवि कैधों सत्य हो की सत्य सत्ता यह। कैधों श्री भगीरथ के जसको इलाका है।
कैधों धर्म कर्म के प्रताप को पताका पर। कैधों सुरसरि के प्रवाह की सलाका॥९॥

कवित्त

तौमें आइ अंगजे पखारे गंग भागीरथी। तिनके करत इक रूप मोहि दीस है।
केती गंग तो में ओ तरंग रंग की है। केती अरधंग और केते गनाधीश है।
ग्वाल कवि कहे चारु शैलन की शैल केती बेलन को फैल औ चुरेल ओ खवोश है।
केतक गिरीश ओ फनीश विश वीसौ बीस। शीश है कितेक औ कितेक रजनीश है॥१०॥

कवित्त

कूल अनु कूलन में पुत्र मंजु मूलन में। फबि रही फूलन में सूलन के झौर में।
रेत के पहारन में हारन में चारो और। खारन में जरन में अंबन के मौर में
ग्वाल कवि कहे फैन फुवन प्रचारन में। देव धुनि धारन उछारन में और में।
दासीसी मुकति भई सबके अधीन यारो। नचत प्रवीनी गनिकासी ठोर ठौर में॥११॥