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अथ श्री दशमहाविज्ञान की स्तुति

महाकाली जी के कवित्त

गरे मुण्डमाल औ त्रिनेत्र जटा छूटि रही। जुग्म शव रूप शिव पर्यो समसान पर।
दसन चरन ताके उर धर वाम पीछें। ऐसें ठाढी ह्वै रही तु भूषित कलान पर।
ग्वाल कवि कहे कीनी कांची हे करन कीसु। मुंड मंजु भुलन की भल है विशालवर।
वाम ऊर्ध कर खड्ग अधकर शीश सध। दसना अघोर्य अभे वरद सुध्यान पर॥१॥

कवित्त

कानन में कुण्डल सो शव के विराजमान। मुल केश लांबे कुहूतम अनुसरियें।
दंत विकराल जिह्वा ललित लंबाइमान। घोर अट्टहास धन घट्टा सो पसरियें।
ग्वाल कवि कहत त्रिलोचन कमल सम। अमल प्रकाश दिसदिस विसतरियें।
घनस्याम तन औ दिगंबरी हसित मुख। दक्षिन श्री काली जू को ध्यान नित करियें॥२॥

ताराजी के कवित्त

कंज को हरित पत्र तापे कंज फूल्यो लाल। तापे श्वेत नीलकंज विकसित है।
तापें शवरूप शिव सूधो पर यो मुक्तकेश। ताके दुहु पग पर वाम पग है।
ग्वाल कवि दक्षिन चरन गें भूप रहें। वाष चर्म नागन सों कटि पे कसित है।
मुण्डन की माल सत अहिमाल बाजू त्योंही। स्वर्ण वर्ष सर्पन के कंकन लसित है॥३॥

कवित्त

दक्षन दुभुज अधकीत्री ऊध खड्ग खुल्यो। वाम अध कर में कपाल है विराजमान।
ऊर्छाकर नीलकंज चारोकर अरुनाई। नील धन दुति देह दंत खर्व कुन्द जान।
ग्वाल कवि जिह्वा दीह तीन द्रग शशिभाल। वद्धित सुकेश शशि पांचन सों शोभवान।
बहुमुख सर्प सेत शोश सो छत्र रहे। द्वितीया श्री ताराजी को ऐसें करो नित ध्यान॥४॥

विद्या षोठशी जी के कवित्त


सोने के सिंघासन पें राजे अरुनांबर से। वंदन वरन तन सुखमा उदोत है।
मोतिन के भूषन सुदक्षिन अधार्घ कर। इषु अरु अंकुश सेत सरसत जोत है।
ग्वाल कवि बायें एक कर धनु एक चक्र। विद्रग प्रसन्न मुख क्रीटमणि जोत है।
राज राज ईश्वरी श्री विद्याषोड़सी को शुभ्र। ऐसो ध्यान धार पार जन होत है॥५॥

भुवनेश्वरी जी के कवित्त

दक्षिन सुकर उर्छा अंकुश औ अध अभे। त्यों ही वामकर पास नर को दीजत है।
लालपट मुलाहल भूषित सकल अंग। पीत फूल माल हेम बरन रजत है।
ग्वाल कवि भनत त्रिअक्ष अक्षक्रीट स्वच्छ। लक्षित विलक्ष छत्र सूरहू लजत है।
परम प्रसन्नानन निरखत नित पाते। भुवन भुवन भुवनेश्वरी भजत है ॥६॥