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४६ : भक्तभावन
 

भैरबी जी के कवित्त

राजे कमलासन शरद राका शशि दुति। सेतही वसन हेम भूषन सों सजे है।
दाहिने सुकर कर्ष मुसलमान अध अभे। वामकर ऊर्ध्वपोथी तखर रजे है।
ग्वाल कवि नैन तीन शीश पेसु क्रोटकीन। देखि चारु चन्द्रिकाकों चन्द्रिका सु लजे है।
भाल भाल माहि वेई भाल है भले जे सदा। भक्ति भूर भावन सों भैरवी जू भजे है॥७॥

छिन्नमस्ता जी के कवित्त

कामरति रति विपरीत लिखि काहू हेत। रति के नितम्ब वाम पद दे सजत है।
रति मुडि देखि त्यों प्रहार्यो चहें दुजो पद। दाहिने सुकर खड्ग कौते उभरत है।
वामकर निज शीश धड कठ्यो धान पीवे। डॉकिनी औ साँकनी दुहू धों पीरजत है।
पीतो रंग सज्ञ उपयोत जैसें करि राख्यो। ऐसे छिन्नमस्ताजू को ध्यान बरनत है॥८॥

धूमावती जो के कवित्त

काक पे सवार सूपवामकर लियो धार। दाहिनो सुकर निज और मुरकायो है।
अम्बर मलीन धूप बरन सुदेह दुति। अति वृद्धि लोम को समूह सरसायो है।
रुक्ष अक्ष तीनो जुल शीघ्रता[१] कलह पर छधा त्रिषालीन सिंह चंचल समायो है।
कुन्तल विमुक्त रुक्ष विरल दसन धरे। धूमावतीजी को ध्यान ऐसी रीति गायो है॥९॥

बगलामुखी जी के कवित्त

सात कुम्भ सिंघासन छत्र छबि छाजत है। अम्बरसु पीत दुति चम्पासी महान है।
वामकर ऊध खड्ग दक्षनाध कर गद। दक्षनोर्ध पासु फोस्यो राक्षस अजान है।
ग्वाल कवि कहे वाम अध करता सो ताकी। जिह्वा गहि[२] खैचे दयौवलतो को भान है।
आभूषन पीत क्रोड़ ओ त्रिअक्ष मुल केश। बगुलामुखी को यों हमेश होत ध्यान है॥१०॥

मांतगी जी के कवित्त

सुधा सिन्धु रलदीप कल्पवृक्ष वन मध्य। मणिमय मंडप सिंघासन दिखानी है।
मधुपान मुदितासु धूरणित अक्षलाल। दुईकर वीणा दुति हरित समानी है।
ग्वाल कवि मृगमद तिलक मुकट शशि। मुलमाल सुक स्यामलाग्र शोभ सानी है।
चंगी मुलि दानी निजदासन की अंगी सत्ता। तंगी की मिटैया श्री मंतगी महरानी है॥११॥

कमला जीके कवित्त

सिंदूर सी कांति कमलासन सरूपनिधि। दिव्य पट लाल मुलमाल हलरत है।
क्रीट काम्य कुण्डल सु किंफनी जु भूषित है। ऊर्धकर दोउ कंज फुल्लित धरत है।
ग्वाल कवि कहे वाम अधकर वसुपात्र। दक्षन सु अधकर पुस्तक टरत है।
तरस त्रिअक्षजाके अंग अंग अमला है। कारज सकल सिद्धि कमला करत है॥१२॥

इति श्री दशमहाविद्यान की स्तुति


  1. मूलपाठ––शिघ्रता
  2. गही।