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अथ श्री ज्वालाष्टक

कवित्त

सिन्धु सुत पीवे प्रीत पूरन प्रतीतकर। आसुरी न लावें कंठमत वृत्ति को धरे।
कृमि तन ही जाने भेद दुःखदान लोकन कों। दीरघ रदन जिन्हें देखत सबे डरे।
ग्वाल कवि जीव गुरु वरने पुरानन में। शिव ही कौं जानत औगुन ही भलें भरैं।
हार धारे होरन में धोरन धरत ऐसैं। देवन अदेवन सहाय ज्वाला कू करें॥१॥

कवित्त

चोवदार चौमुख खवासी करे षटमुख। एक मुख वारो धुनि कियो करेब की।
द्वारे द्वारपाल देवराज दल देवन के। हवन करै वे पर हाजरी हैरंब की।
ग्वाल कवि प्रसिद्ध प्रभाकर पें पानदान। छत्र में छपाकर वरद अविलंब की।
जा हर जलूस जोर जुग-जुग जोइयत। जागती जगत जोत ज्वाला जगदम्ब को॥२॥

कवित्त

अम्बर तैं आवे द्वै नहर जल धारन की। लहर दुहुधा देवधुनि के रसाला की।
दौरे देवतान के दलील दल दखर। हखर हाजिरी में भीरे देवबाला की।
ग्वाल कवि गावे गुन नारद न पावे अंत। संत को सहाइक इकत छबि आला की।
फूले बहु नत्र जायें ऐसी नत्र कंदरा। हेम नत्र तामें जोति ज्वाला की॥३॥

कवित्त

कैधों वृषभान की प्रभावन जीतिबे कों राधे। शीश फूल धार यो शोश सुखया हिलोरेको।
कैधों विधि वाजीगर बाजी खेलि जातो रह्यो। रहि गयो प्यालो माला जो लिनके चोरे को।
ग्वाल कवि कैधों सुरराज ने असुर जीत। राख्यो है उतार टोप सोहे सकाझोरे को।
कैघों जगदम्ब जोति ज्वाला को जलूसदार। जाहर जगे है छत्र जात रूप जोरे को॥४॥

कवित्त

एरी मात ज्वाला जोति जाला की कहो में कहा। कौतुक विशाला गति अद्भुत तेरी है।
भानते कशानतेसु चक्रहूते पुष्ट झार। दुष्टन के दल दवरि होत नेरी है।
ग्वाल कवि दासन को शीतल सदाई ऐसी। जैसी है सु तैसी सो कहे क्यों मत मेरी है।
चन्दन सी चन्द्रमासो चन्द्रिकातें चौगुनीसी। जलसी हिमंत सो हिमालय सी हेरी है॥५॥