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अथ दूसरा गणेशाष्टक

कवित्त

आठै सिद्धि नोहू निदि वृद्धि के करेया सदा। सकल समृद्धि के दिवैया यही आज है।
लाडिले ललित गौरिशंकर के सरसत। भंजन भयंकर के दरसे दराज है।
ग्वाल कवि विद्या के विलासन कों बकसत। दासन कों देत अभयत्व के समाज है।
सुजस-सुबासन के दायक हुलासन के। नाम के प्रकासन गनेश महराज है॥१॥

कवित्त

भारत के पूरिबेके आछे उपकारन हे। विपति विदारन है करुना समाज है।
वीरन को वीरता के धीरन कौं धीरता के। पीरन कों पीरता के दायक दराज है।
ग्वाल कवि तेतिस करोड देवतान के ये। इच्छक हमेंश सब ही के सिरताज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नामके प्रकासन गनेश महाराज है॥२॥

कवित्त

सतोगुन रजोगुन तमोगुन तत्व जामें करे ते प्रभत्व जाके होत शुभकाज है।
दूर करें दरद रिपून को गरद करे। रद करे रंकता दयालता दराज है।
ग्वाल कवि कहत कुरूपन सरूप देत। इज्जत अनूप देत दान के जहाज है।
सुजस सुवासन दायक हुलासन के। नाम के प्रकासन गनेश महाराज है॥३॥

कवित्त

सदा दंड उच्च करि चाहे तो लपेटें रवि। चाहे तो चपेटे चंदे ऐसे बे इलाज है।
चाहे तो स्वरंग गंग पलमांहि पीय डारे। चाहे तो उखारि डारे नंदन समाज है।
ग्वाल कवि कहे जो में चाहे एक टकरतें। मेरु कों बखेरें ऐसे बल सिरताज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नामके प्रकासन गनेश महाराज है॥४॥

कवित्त

सूरज के रथमांहि एक चक्र सुनियत। ताही की फिरनि लोकलोक दुति साज है।
शुक्र जू को एके द्रग दैत्यन को रच्छक है। पच्छक है नीको होय तातें सब काज है।
ग्वाल कवि कहे ऐसें एक दंत बलवंत। अति छबिवंत पूरे कामना समाज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नामके प्रकाशन गनेश महाराज है॥५॥