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५२ : भक्तभावन
 

कवित


जाके उपहासतें विकास होत जाहर है। भादी सुदि चौथ को न देखे दुजराज है।
एक कलाचंद की विराजमान मस्तक। याही हेत दुतिया को वंदत समाज है।
ग्वाल कवि कहे नाम मात्र इंद्र सुरराज। ये पुंजें सकल काज यातें सुरराज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नाम के प्रकासन गनेश महाराज है॥६॥

कवित्त


माघ वदी चौथ को भली प्रकार पूजे जिन्हें। तिन्हें देत रिद्धि सिद्धि निद्धि के समान है।
सिंदूर संजुल तुंडचंदन त्रिपुंड तेसो। अद्युतो सुढार सुंड सुखमा विराज है।
ग्वाल कवि अतर अखंड अंग अंग राजे। उर पर साजे गंज गजरे दराज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नामके प्रकासन गनेश महाराज है॥७॥)

कवित्त


नाम जाके द्वादश विशेष करि जपनीय। सुमुख ओ एकदंत कपिल विराज है।
गजकरन लंबोदर विकट विघननाश। बिहंसि विनायक औ धूम्रकेतु[१] साज है।
ग्वाल कवि भनत गणाधिप औ भालचद्र। गाइयें गजानन त्रिलोक सिरताज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नामके प्रकासन गनेश महाराज है॥८॥

इति दुसरा गणेशाष्टक


  1. मूलपाठ–धुमकेतु।