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अथ देवतान की स्तुति : ५५
 

कवित्त

ताटक असुर सुर जीत लियो जुद्धकर। तब सुरराज वज्र मारयो ज्यों लगे घड़ी।
विष्णुचक्र मार्यो सोक वक भयो धार मुड़ि। सम्भु को त्रिशूल लागे फूल ज्यों घड़ी घड़ी।
ग्वाल कवि स्वामी सुनाम कारतिक जू ने जब। सहज सुभाइ मारी बरछी अनी बड़ी।
शत्रु उर पुर फोड़ि कोंच गिर फोरि कर। फेर दिश दिग्गज के कुम्भ जाइकें गड़ी॥१२॥

शीतलाजी के कवित्त

गीत ले सुनावे जोपें जागि कें सकल रेनि। तोपे विसे वीस सो वसी करे मही तले।
चीत ले मनोरथ चतुर चित चाउ जेते। पूरन सु तेते होइ जेहे प्रन प्रीत ले।
जीत से अरिदल के वृन्द कवि ग्वाल भने। ताके चरनारविंद देखन की नीतले।
होतले बसावे भक्ति रीत ले प्रतीत ले के। सीतलें करत बाहि ऐसी मात शोतले॥१३॥

सूर्य के कवित्त

वाधक तिमिर प्रभा साधक अगाध कहे। राधक त्रिकाली के असाधक प्रतच्छही।
विष्णु पति नोको नीको बन्धु है कलानिधि सो। तामें सिद्धि प्रसिद्धि परी है दुति स्वच्छ हो।
ग्वाल कवि जिनकी सुकर के निकर कर। फैली है जगत जोति अच्छ अच्छ अच्छ ही।
अधिक उदंड खंड खंड में अखंड मंड। चंड मारतंड सदा मोपें रच्छ रच्छ हो॥१४॥

कवित्त

विद्रुम वरन उदे प्राची ते प्रकाश होत। तम तोम ताके महा नाशक विलच्छ है।
करत प्रनाम मात्र होते सुप्रसन्न होत। धन्न धन्न जाको जग भाखे भांतिलक्ष है।
ग्वाल कवि कोक कोकनद प्रफुल्लित कारी। ब्रह्म को विराट रूप दक्षन सुअक्ष है।
शोभित सहस्र अंशु सुभाशुभ कर्म साक्षी। सूरज समान सुर और न प्रतक्ष है॥१५॥

ब्रह्माजी के कवित्त

विष्णु को विशद वर उदर जु सरवर। क्रांति स्वच्छ कमल सु पुरित विरंचिये।
ताको मध्यपल नाभि नन्दित करन धन। तातें उद्भव एक कमल श्री जचिये।
ग्वाल कवि कोशासन करि के स्वयं प्रकाश। तुर्यवक्त वेद वक अम्ब सों परचिये।
चंदन तें चंद्रकतें चंपातें चमोलिन तें। चित दे दे चौंपन तें चरन चरचिये॥१६॥

इन्द्र के कवित्त

क्रिल्या की चले न जापें जित्या है पताल हाल। पृथ्वी में अहिल्या के अखिल सर्वकाज होय।
भज्ज भज्ज गये वृन्द वृन्दारक लज्ज लज्ज। तज्ज तज्ज शस्त्रन पुकारे रक्ष आज होय।
ग्वाल कवि जाके षट कौन ऐसो वज्रलेकें। वृत्रासुर मार्यो ताकी तीन लोक गाज होय।
महातेज वक्र औ पराक्रम अत्यग्र अद। ऐसे महाराज शक्र क्यों न सुरराज होय॥१७॥