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५८ : भक्तभावन
 

कवित्त

दंडी ध्यान लावे गुन गावे है अदंडी देव। चंड भुज दंडी आदि केतक विदंडी है।
कीरति अखंडी रही छायन बखंडो खूब। चौभुज उदंडी वरामै असि भूसंडी है।
झंडी करुना को ब्रह्मंडो कहे ग्वाल कवि। छंडी नहीं पैज भक्ति पालन घमंडी है।
मंदी जोति जाहर घमंडी खल खंडी दंडी। अधिक उमंडी बल बंदी मात चंडी है॥३०॥

कवित्त

गावत विरंचो रंचो विष्णु ना विसारत है। धारत महेश जो मिटैया बहु रंज की।
त्रिभुवन पालन की पोखन की पैज तेरी। भलन के शत्रुन को शोमा भूर भंज की।
ग्वाल कवि जग में जपत जगदंबा गौरी। जाचत हों एके यह बात सुख संज की।
जौ लौ रहे जिंदगी जिहान[१] बोच मेरी मात। तौ लौ करौं बंदगी तिहारे पद कंज की॥३१॥

कवित्त

मामें अति औगुन अधमाता के शैल सुते। तिनकौ न ताको तो मिटेगी बात रंज की।
तारक विरद बुझि आपनो जो दीजे मुक्ति। तो रहों समीप करौं सेवा मोद मंज की।
ग्वाल कवि जो पे वेर वेर जनमाओ तोपें। मानस बने यो दीजो भक्ति भ्रम भंजकी।
जो लों रहै जिंदगी जहान वीच मेरो मात। तो लो करौं बंदगी तिहारो पद कंजकी॥३२॥

अमृत ध्वनि

खलबल पच्छिम जग्ग में। सुंभ निसुंभ समुद्द।
जुड़े श्री जगदंब सों। कहि कबि ग्वाल बिहृद्द।
इद्रं है दव्चत कद्द हैं। पव्वत वद्दहं वद्यजु।
नद्दह श्रोनित छद्दह। प्रथ्यिम चम्चत रद्यजु।
कुद्दह चेंडिय सद्दह भंजिय‌। रुद्दह अरि[२] दल।
मुद्दह निज्जर फंदह जुग्गिन। रद्दह खलबल॥३३॥

काशीजी के कवित्त

गर्भ ते निकासी किंवा प्रान की निकासी होई। भवतें निकासो जाकी सहज प्रकासी है।
कोट कोट जन्मन के पाप की विनासो खासी। दासी है मुकति द्वार द्वार में विकासी है।
ग्वाल कवि वासी सब होइ जात अविनासी। तारक हुलासी परम धर्म नवकासी है।
पढ़े सारिकासी जहाँ ब्रह्म ग्यान कारिकासी। काशी में बताऊँ भैया काशी सो सुकासी है॥३४॥

इति फुटकर देव देवी स्तुति पूरणं


  1. मूलपाठ––जीहान
  2. अरी