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६० : भक्तभावन
 

सवैया

पिब कारिन सों वटकों छिटक्यो जलधारन सों जटा जागतो है।
तिहिं छाँह घनी में विचोवाखसो खसही की कनाते सु पागती है।
कवि ग्वाल वे सीची गुलाब घने पे जलाना तक न विरागती है।
न छुये न छुये सियराइ कहूँ न सुके न सुके लुये लागतो है॥७॥

सवैया

इकली में अभागिन हूँ घर में, न परोसिन हू अनुरागती है।
तुम्हें देखि बटोहिं दया उपजी, इहि बेर दशो दिशि दागती है।
कवि ग्वाल दुकोशलो पानि नहीं, अरु छाया न केसिहू जागती है।
बिरमो यह पौरि हमारी अजू सु अगारी बड़ी लुये लागती है॥८॥

सवैया

कल पीहर जैवो जरूर हमें पे करे, रवि को अति दागती है।
चलि भोरहि जाइ टिकोंगी तहां, जहां छोह तमाल की जागती है।
कवि ग्याल अबेरे चले ते अने, शिथलाई शरीर में पागती है।
इक जामहि घाम चढ़े ते अली, अजबी गजबी लुये लागती है॥९॥

सवैया

जिन जाऊ पिया यों कहों तुम सौं तो तुम्हें बतियाँ यह दागती है।
इहाँ चंदन में घनसार मिलेसु सबे सखियाँ तन पागती है।
कवि ग्वाल कहाँ कहाँ कंज बिछे, उन मालती मंजुल जागती है।
तजिके तहखाने चले तो सही, पे सुनी मग में लुये लागती है॥१०॥

सवैया

पिय जाइ विदेश बसे जब तें तब से विषसी पिकी रागती है।
मति चंदन मेरे लगाउ सखी ये चमेली चिराग सो दागती है।
कवि ग्वाल फुहारै फुहारन की, तन जार ही जार सुभागती है
खस बीजना ना करि ना करि नाकरि, ये अंगार भरी लुये लागती है॥११॥

कवित्त

पीयें जब पानी तब गरम ही पोजियत। प्यास न बुझात यातें होत को खफा नहीं।
आँधी को गुबार घुरघार बेसुमार बढ़े। रात लग लूये चलें को जो तड़फा नहीं।
ग्वाल कवि केह चीज छुयें ते गरम सब। दम घभरात नींद आवत सफा नहो।
पांच हू रितु की गुलामिनीजु ग्रीषम है। मसल कसूर है गुलाम ते वफा नहीं॥१२॥