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६२ : भक्तभावन
 


कवित्त

ग्रीषम के त्रास जाके पास ये बिसात होत। खस के मवास में गुलाब उछर्यो करे।
विही के मुरब्बे डब्बे चांदी के वरक भरे। पेठे पाग केवडे में बरफ पर्यो करे।
ग्वाल कवि चंदन चहल में कपूर पूर। चंदन अतर तर वसन खर्यो करे।
कूंजमुखी कंजनैनी कंज के बिछोनन पें। कंजनकी पंखी कर कंज सों को करे॥१९॥

कवित्त

ग्रीषम की पीर के विदार के सुनोये साज। तरु गीर तीर के सुछाया में गंभीर के।
शीतल समीर के सुगन्धी गौन धोर के जे। सोर के बरैया प्याले पूरित पटीर के।
ग्वाल कवि गोरि द्रग तीर के तुनीर केसु। मोद मिले जैसे अकसीर के खमीर के।
आबखोरे छोर के जमाये बर्फ चीर केसु। बंगले डशीर के भिजे गुलाब नीर के॥२०॥

कवित्त

भान की तपन वन उपवन जारें लगी। तेसी लूयें लोल लागे ज्वाल जाला सी।
ताल नदी तालन के नीर तें रँधन लागे। याते लाल सुनहूँ उपाय इक आला सी।
ग्वाल कवि प्यारी को छबीली छाती छाँह छियो। चांदनी सी हाँसी देह चंदन रसाला सी।
पाला सी विलोकनि हिवालासी लिपट जाकी। लीजे चलिकंठ मेलि मालती की माला सी॥२१॥

पावस ऋतु वर्णन
कवित्त

आवत अषाढ़ आगि अंबरतें औधी परे। लोग अनुमाने मेह घूम मेह धारकी।
आई है कि आई अब आवत ही है है घटा। त्यों ही कही काहू सुनो गरज धकार की।
ग्वाल कवि कोऊ केह धुखा दिखाने वह। एके कहे सौंधी गंध आइ शीरी बयार को।
बोलि उठ्यो एक का अवाई सी मचाई भाई। आई वह आई यह बरखा बहार की॥२२॥

कवित्त

रंग रंग रंग के पयोधर तुरंग तीखे। मस की सुरंग चीने सुधर समाज के।
त्रिविधि बयार सो सबार वेगवान धार। बोजु चमकार तोप प्याले खुस काज के।
ग्वाल कवि अंबर अनूप रूप खेमा खूब। धुखा तनावतने द्रढता दराज के।
हेरे में करे रे दल घेरे चहु फेरे अब। आइ परे डेरे नेरे. मेघ महाराज के॥२३॥

सवैया

यह सावन आयों सुहावन है तरसावन, मानसों भागि रहो।
जलधारन सों थल पूरि रहे सुर मीठे, मलारन रागि रहो।
कवि ग्वाल दया कर देखो इते, रिस दामन सों जिन दागि रहो।
अनुरागी रहो निशि जागि रहो, रति पागि रहो गल लागि रहो॥२४॥