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६४ : भक्तभावन
 

कवित्त

प्यारी आऊ छात में निहारी[१] नये कौतुक यें। धन को घटातें खाली नभ में न ठौर है।
टेड़ी सुधी गोल औ चखूटी बहु कौन वारी। खाली लदी खुली मुदी करे दौरा दौर है।
ग्वाल कवि कारी धोरी घुमरारी घहारी। घुरवारी बरसारी झुरी तौर तौर है।
यह आई वह आई यह गई वह गई। और यह आई उठी आवत वे और है॥३१॥

कवित्त

प्यार सौ पहिर विसवाज पौन पुरवाई। ओढनी सुरग सुरचांप चमकाई है।
जगाजोति जाहर जवाहर सो दामिनी है। अमित अलापन को गरज सुनाइ है।
ग्वाल कवि कहे धाम धाम लसि नाचे राचो। चित चित्तवित्त लेत मोद मांचत महाइ है।
वंचनी विराग हूँ ने अति परपंच तीसी। कंचनीसो आज मेघमाला बनिआइ है॥३२॥

कवित्त

पावस को साँझ माँझ ताकिये तमासो खासो। वासो किये भानु दबी किरने दिखात है।
एरी मेरी प्यारी ते हूँ हेरी है कि नाहि कभू। केसी नभ न्यारी न्यारी छबि छहरात है।
ग्वाल कही जूही सेत चंपकई लीली पीली। घूमरी सिंदूरी बदरी ये मँडरात है।
मानहुँ मुखौमर मनोज को मुकव्यामंजु। फेलि पर्यो तारी तसवीरें उड़ी जात है॥३३॥

कवित्त

गेह अति ऊँचे होय खुले होय ढके होय। दरै होय गोखे होय रौसे होय रँगे सी।
बन होय बाग होय बीन होय का होय। केकी होय भेकी होय पवन अभांगे सो।
ग्वाल कवि गरम गिलोरी होय गिजा होय। बूंदे होय इदे होय दामिनी के संगे सो।
प्यारी होय प्यारे होय प्यार होय प्याले होय। होय परजंक पर जंघन की जंगे सी॥३८॥

कवित्त

देख देख आवन ये सावन सुहावन की। ऐसी चित आवत कहूँ न नेको टरिये।
पलंग बिछाई आछे अतर लगाइ चाइ। गाइ के मलार दाइ बाई अनुसरिये।
ग्वाल कवि कामिनी की जंघन में जंघ मेलि। पेलि भुज गल में लपेटि अंग भरिये।
चूमिके कपोल गोल उरज अमोल मलि। खोलि खोलि नीवी मन भायो कर्यो करिये॥३५॥

कवित्त

मोरन के शोर छाये जुगनू करोर छाय। भंवर मरोर छाये बाटिका छिपाई है।
रुखन खग छाये नग छाये चक्रवाक। मग छाये नद नदी धार झगि पाई है।
ग्वाल कवि कहे डार डार दल छाये हरे। मोद छाये दंपति नवेली गीत छाई है।
घन छाये वन छाये वन छाये जन छाये। पै न आइ छाये पिय मेरे आजताई है॥३६॥


  1. मूलपाठ : नीहारी।