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६६ : भक्तभावन
 

कवित्त

छिनहू थंमे न मेह बरसत भांति भांति। ताकी तीन डकती हिये में मेरे ह्वै गई।
कैधों स्वर्ग गंगाके सुबंध में भये हैं छिद्र। तिनतें अनेक धारें छूटी सोइ ह्वै गई।
ग्वाल कवि कैधों जलझारियाँ सुरीगन को। तीव्रतम पौन से ढरी सों सब ह्वै गई।
कैधों सुर राजजू के भिसतो अनंतन की। मसकैं पुरानी परी झांझरी सी ह्वै गई॥४३॥

कवित्त

बीति गई अवधि मन मोहन के आइबे की। ताइबे की वानलई पंचवान बानले।
धीर गयो घाय पीर पल पल सर साई। कछु न सुहाई गई मतिहू सयान ले।
ग्वाल कवि सुनी में दुनी में दई दीन घाल। याते करौं अरज दया के मेरी मान ले।
मेघन की धारन तें केरी किलकारन तें। पपिहा पुकारन ते पहिले ये प्रान ले॥४४॥

शरद ऋतु वर्णन
कवित्त

आज अंबरख ते लिपाय मंजु मंदिरन। तास सेत बिछत करी है चौक हृद में।
ताने सामियाने जरीदार सेतजेब भरे। मोतिन[१] की झालरें झलाझल के सद में।
ग्वाल कवि चौसर चमेली के चंगेरन में। चुनवाँ चमके चीरवादला विशद में।
चंद ते सि चंदमुख अमल अमंद अति। बैठे ब्रज चंद चंद पूरन शरद में॥४५॥

कवित्त

हीरा के फरस पर होरा के फरसबंद। रजत की सेज दूध धारन सी ह्वै रही।
सेतसेत तास के चंदोवा चहुँ और ताने। सेत बादला तें सुखमासी चारु च्वै ही।
ग्वाल कवि मोतिन की झालर की झिलि मिलि। हिलि मिलि अलिन अनंत छवि ह्वै रही।
शरद की चटकीली चाँदनी की जोति मिलि। प्यारी मुखचारु चाँदनी तें एक ह्वै रही॥४६॥

कवित्त

मोरन के शोरन की नेको न मरोर रही। घोरहू रही न घन घनेया फरद की।
अंबर अमल सर सरिता विमल भल। पंक को न अंक औ न उड़नि गरद की।
ग्वाल कवि चहूँधा चकोरन के चैन भये। पंथिन की दूर भई दुखन दरद की।
जल पर थल पर महल अचल पर। चाँदी सी चमकि रहि चाँदनी शरद की॥४७॥

कवित्त

चम चम चाँदनी की चमकि चमक रही। राखी है उतारि मानो चंद्रमा चरखतें।
अंबर अवनि अंबु आलय विटव गिरे। एक ही सें पेखे परें बने ना परखतें।
ग्वाल कवि कहे दसो दिश ह्वै गई सफेद। खेद को रह्यो न भेद फूली है हरखतें।
लो पी अंबरख तें कि टोपी पुंज पारदतें। कैधों दुति दीपी चाँदी के बरखतें॥४८॥


  1. मूलपाठ :––मोतीन