२३–दल का अगुवा ___ दल या जमात का अगुवा सदा एक होता है, दो-चार नहीं । जहाँ दो-चार अगुया बनते हैं और वे अपनी प्रतिष्ठा और अपनी राय - सबके ऊपर रक्खा चाहते हैं, वह जमात छिन्न-भिन्न हो जाती है । सब । लोग तितिर-वितिर हो उस दल' को कायम नहीं रक्खा चाहते । इसी . बुनियाद पर कहा गया है- स्त्रं वन विनेतारः सर्ने पहित मानिनः । .. सर्व महत्वमिच्छन्ति तद्वन्दमवसीदति ।। जहाँ सभी अगुवा बनते हैं, सब लोग अपने को बुद्धिमान मानते है, एक ही आदमी की अभिल पर रहनुमा नहीं हुआ चाहते सभी अपना-अपना बड़प्पन चाहते हैं, वह जमात मुसीवत न पड़ जाता है। कदाचित् इसी बात का ख्याल कर किसी ने कहा है। "न गणल्याप्रतो गच्छेन् ।" किसी दल का अगुश्रा न हो, अर्थात् पहले किसी बात का नमूना श्राप न दिखलावे । इसलिये कि उस काम के बन जाने पर नमूना वननेवाले को विशेष लाभ नहीं । और जो उसके नमूना दिग्पलाने से कासा गया तो उन लोग उसी की पाजीहत करने लगते हैं। पर यह तो लोग्ता और नामर्दी है । सैकड़ों बुराइयों हमारे समाज में हमी से नहीं मिटाये मिटतीं । किम्ग को इतना गाहस नहीं है कि पहले खुद कर दिखाये । अच्छे पढ़े-लिखे लोगों में इतनी हिम्मत नहीं है तव अण्ड बेचारों का क्या जाना! जमा बाल्य विवाद के सम्बन्ध में किसी को साहस नहीं होता कि जोदशन के उपरान्त कन्या का विवाह करने में नमूना बने । बाफरेन्त गोर कमेटियो में वह और .
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