पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१५५

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__', '. परचितानुरंजन १३६ अलबत्ता पैदा हो जाती है । बहुधा ऐसा भी होता है कि हमारी हार होगी, इस भय से प्रतिवादी का जो तल और मर्म है उसे न स्वीकार कर अपने ही कहने को पुष्ट करता जाता है और प्रतिपक्षी की बात काटता जाता है। हम कहते हैं, इससे लाभ क्या १ प्रतिवादी जो कहता है उसे क्यों न मान लें उसका जी दुखाने से उपकार क्या- - फल व किंचित् अशुभा समातिः।" ' - सिद्धान्त है, - "सुण्डे-गुण्डे मतिर्भिन्ना तुण्डे-तुण्डे सरस्वती । बहुत लाग इस सिद्धान्त को न मान, जो हम समझे बैठे हैं, उसे । क्यों न दूसरे को समझावे, इसलिये न जानिये कितना तर्क कुतर्क शुष्कवाद करते हुये श्रॉय-बाय बँका करते हैं । फल अन्त में इसका यही होता है कि जी कितनों का दुखी होता है। मानता उसके कहने । को वही है जिसे उसके कथन में श्रद्धा है । हमारे चिच मे ऐसा आता है कि जो हमने तत्व समझ रक्खा है उसे उसी से कहूँ जिसे हमारी वात पर श्रद्धा हो। मोती की लरियों को कुत्ते के गले मे पहिना देने से फायदा क्या? अस्तु, हमारे प्राचीन आयो ने जो बहुत-सी विद्या और ज्ञान छिपाया है उसका यही प्रयोजन है । जिसे इन दिनों के लोग ब्राह्मणों पर दोषारोपण करते हैं कि ब्राह्मणों ने विद्या को छिपाया, सवों को न पढ़ने दिया। विद्या बाह्मणनेस्याह शेवधिस्वेभवाम्यहम् । असूयकाय मां मादास्तथा स्यां वीर्यवत्तमा ॥ विद्या ब्राह्मण से यों कहती हैं-मैं तुम्हारा खाना हूँ, मुझे जुगै के रक्खो, निन्दक तथा गुण में दोष निकालनेवाले मत्सरी को मत वतलाओ, ऐसा करोगे तो मैं तुम-सी अत्यन्त वीर्यवती हूँगी। छान्दोग्य- ब्राह्मण में भी ऐसा ही कहा है-