पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३२
भट्ट निबन्धावली


नहीं है और जो एक ऐसा चमनिस्तान है जिसमे हर किस्म के बेल- बूटे खिले हुये हैं इस चमनिस्तान की सैर क्या कम दिल-बहलाव है? मित्रों का प्रेमालाप कभी इसकी सोलहवी कला तक भी पहुॅच सकता है? इसी सैर का नाम ध्यान या मनोयोग या चित्त का एकाग्र करना है जिसका साधन एक दो दिन का काम नहीं वरन् साल दो साल के अभ्यास के उपरान्त यदि हम थोड़ा भी अपनी मनोवृत्ति स्थिर कर अवाक् हो अपने मन के साथ बातचीत कर सके तो मानो अति भाग्य है। एक वाक्-शक्तिमात्र के दमन से न जानिये कितने प्रकार का दमन हो गया। हमारी जिह्वा जो कतरनी के समान सदा स्वच्छन्द चला करती है उसे यदि हमने दबा कर अपने काबू में कर लिया तो क्रोधा- दिक बड़े बड़े अजेय शत्रुओं को बिन प्रयास जीत अपने वश कर डाला। इस लिये अवाक् रह अपने आप बातचीत करने का यह साधन यावत् साधन का मूल है, शान्ति का परम पूज्य मन्दिर है, परमार्थ का एक मात्र सोपान है।

अगस्त, १८९१
 


--------