पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

P51 भट्ट निबन्धावली वासना बहुत कम हो गई है । किन्तु वहाँ और के मुकाविले खुदगर्जी को अलबत्ता बेहद्द दखल है। आपस मे आत्मत्याग और सहानुभूति ज्यों की त्यो कायम है । लकाशायर वालों की बड़ी हानि के ख्याल से रुई के माल पर "इम्पोर्ट ड्य टी का न लगना गवर्नमेंट की हाल की कार्रवाई इस बात की गवाही है। इस खुदगर्जी के लिये जो सरासर अन्याय और धर्मनीति के विरुद्ध है अँगरेजी गवर्नमेण्ट को दुनिया की और सलतनते नाम रखती हैं पर वहाँ - "स्वार्थभ्रशो हि मूर्खता" का सिद्धान्त सब को दबा रहा है । हमारे यहाँ नई तालीम ने कुछ निराला ही रग दिखलाया। जबान से कहो आत्मत्याग "सेल्फ-सेक्रिफाइस" दिन भर चिल्लाया करे, काम पड़ने पर एक दूसरे के लिये छूरी तेज किये ताका करते है । पुराने क्रम बाले धर्म और ईश्वर के भय से बहुत से अनुचित कामो से अपने को बचाते हैं यहाँ सो भी नहीं है क्योंकि तालीम पाकर जो ईश्वर में श्रद्धा और धर्म की ओर झुकावट हुई तो समझना चाहिये उसे पूरी-पूरी तालीम नही दी गई। समाज के वन्धन से छुटकारा, स्वच्छन्दाचार, वेरोक टोक स्वच्छन्द आहार- विहार इत्यादि कई एक वाते नई तालीम के सूत्र हैं। आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज आदि भिन्न-भिन्न समाजों मे जो ये कपटी घुसा करते हैं और उन उन समाजो के बड़े पक्षपाती है सो इसीलिये कि ये समाज उनको अात्मसुखरत होने के लिये ढाल का काम दे रही हैं । यद्यपि इन समाजों के प्रवर्तक महापुरुप यात्मत्याग के नमूना हो गये हैं, उनका कभी यह प्रयोजन नहीं था कि केवल श्रात्मसुखेच्छा' और समाज-बन्धन मे छुटकारा पाने के लिये तथा यत्किञ्चित् बचे-बचाये श्रात्मत्याग के उस्लों को तहस-नहस करने के लिये उनकी समाज में लोग दाखिल हों। शस्तु, हमारे दिन अभी अच्छे नहीं हैं देव हमसे प्रतिकूल है जो कुछ पाप हिन्दू जाति ने बन पड़ा है और बराबर बनता जाता है जब तक उमका भरपूर मार्जन न हो लेगा तब तक जो कुछ उपाय भी इस बिगड़ी