पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/५७

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संसार सुख का सार है हम इसे दुःख का आगार कर रहे हे ५७ . डाला पर इतना न सोचा कि विवेक पूर्वक धन का आय तथा व्यय हो तो कहाँ दुःख रह जाय १ कोई ऐसे हैं कि औलाद के लिये तरस रहे हैं न जानिये कितनो मान मनौती माने हुये हैं, पूजा-पाठ, जप-तप सब कर थके । पुत्र का मुख न देखा, धन-धान्य राज-पाट जिसके बिना फीका मालूम होता है जीवन व्यर्थ मानते है । कोई ऐसे है कि औलाद से घर भरा है जिसकी यहाँ तक कसरत है कि ऊबे हुये हैं ज़िन्दगी के दिन पूरे कर रहे हैं । आँवा का ओवा गन्दा हो गया एक भी ऐसे न हुये कि इस बुड्ढे को सुख पहुँचाते एक एक दिन भारी हो रहा है। सबेरे से उठ इसी फिकिर में लगता है कहाँ से लावै कि इन्हे पालें। ७० वर्प का हुआ पर आराम और सुख उसके लिये सपने के ख्याल हो गये । कुटुम्ब पालन के बोझ से पिसा बार बार काँखता है, खिजलाता है, समय को दोष देता है, ससार का नरक का भोग मानता है पर अपनी भूल को एक बार नहीं सोचता कि सृष्टि पैदा तो कर दिया और उसको किसी ढग की करने का कभी ख्याल न किया, अपने आप अपना भरण पोपण की योग्यता उनमे बिना पैदा किये ब्याह कर घर बसाता गया । वे-समझी का कुसर तो तुमने किया दण्ड अब उसका दूसरा कौन भुगतै ? कुओं की मांग है किससे कहै देश का देश इस बुराई में पड़ा झख रहा है पर किसी के मन में यह नहीं आता कि यह महा कुरीति है इसे छोड़ दे। अपनी भूल को नही पछताते ससार को अथाह दुःख का सागर और अपने को उसमे हुवे हुये मानते हैं । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य इन छहो के चक्कर मे पड़े हुये हम तुम सब ने अनेकानेक क्लेश झेलते हुये संसार को दुःखमय तो निश्चित कर रक्खा है किन्तु अपनी ओर एक बार नहीं देखते कि यह सब हमारा ही कुसूर है । हम जो अपने को सुधार डालें तो यह ससार जो जहर सा कडा बोध होता है दाख रस सा मधुर हो जाय । क्या समाजनीति क्या धर्मनीति क्या राजनीति जिधर देखो उधर हमारी ही बड़ी भारी त्रुटि पाई जाती है: जिससे हमारा समाज, हमारा धर्म, हमारे भ. नि.....