पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/९७

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२४-सुख दुःख का अलग अलग विवेचन बुद्धिमानों ने सुख-दुःख का निर्णय इस तरह पर किया है कि जो अपने को अनुकूल वेदनीय वह सुख है और जो प्रतिकूल वेदनीय हो वह दुःख है । एक ही वस्तु एक को दुःख का कारण होती है इस लिये कि वह सब भाँति उसके अनुकूल है; वही दूसरे को दुखदायी हो जाती है क्योंकि वह सब तरह पर उसके प्रतिकूल पड़ती है। प्राणीमात्र को एक ही वस्तु या एक ही विषय सुखद और दुःखद नहीं होते । माघ कवि ने कहा भी है :- "भिरुचिहि लोक" इत्र जो हम लोगों को अत्यन्त प्राणतर्पण और मस्तिष्क को ताकत पहुंचाने वाला है गोबरैले को सुंघाने से वह मर जाता है। हम गृहस्थों को विषयास्वाद सुख का हेतु और जन्म का साफल्य है वेही विरक्त बीतराग को उसमे हेय बुद्धि और जैसे हो सके उसका त्याग सुख और शान्ति का हेतु है। बालसी सुस्त बेकाम पड़े रहने ही को सुख समझता है परिश्रम शील उद्योगी परिश्रम ही को सुख मानता है। उदार चेता को खाने खिलाने और किसी को अपने पास का चार पैसा दे देने मे असीम सुख मिलता है। वही बद्धमुष्टि कंजूसकदर्य की समझ मे जो सुख की अन्तिम सीमा हाव-हाव कर रुपया बटोरने मे है वह इन्द्र के अर्द्धासन के मिलने में भी कदाचित् न होगी। खेलाड़ी आलसी लड़का पढना महा दुःखदायी मानता है वही विनीत, परिश्रमी, विद्यानुरागी नई-नई पुस्तके और टटके से टटके लेख पढने मे अपने अानन्द का उत्कर्ष और दिल-बहलाव का एक मात्र वसीला मानता है। डरपोक -कायर के लिये रण क्षेत्र भय का स्थान है वही युद्धोत्साही वीर के लिये