पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१०२

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(८२)
[शृंगार-
भामिनीविलासः।

लोभाद्वराटिकानां विक्रेतुं तक्रमविरतमटन्त्या।
लब्धो गोपकिशोर्या मध्येरथ्यं महेन्द्रनीलमणिः॥४१॥

कौड़ीके लोभसे मही बेंचनेके लिए निरंतर फिरनेवाली गोपकीशोरी ने मार्गमें परम श्रेष्ठ नीलमणि पाई! (इसमें एक तो यह भाव निकलता है कि तक्र बेचनेवाली गोप सुता राधिकाको श्रीकृष्ण अनायास मिले; दूसरा यह कि, अल्प धनके हेत महान परिश्रम करने से अप्राप्य वस्तु भी प्राप्त होती है । थोडे पदार्थकी इच्छा करनेमें बहुत लाभ होना 'प्रहर्षणे' अलंकारका लक्षण है)

रूपारुचिं निरसितुं रसयन्त्या हरिमुखस्य लावण्यम्।
सुदृशः शिवशिव सकले जाता सकलेवरे जगत्यरुचिः॥४२॥

(जैसा मेरा रूप रुचिर है वैसा और किसीका नहीं इस प्रकारके गर्वसे जगतमें मनुष्यजातिकी सौंदर्यतासे घृणा उत्पन्न हुई है जिसे उस), स्वरूप की अरुचिको दूर करनेके लिए श्रीकृष्णके मुखकी लावण्यका स्वाद लेने वाली सुलोचनी को शिव, शिव अपने शरीरके सहित संपूर्ण जगत् में अरुचि उत्पन्न हुई अर्थात् कृष्ण मुझ से भी विशेष सुन्दर है यह जान वैराग्यका अंकुर जमा।

प्राणापहरणेनासि तुल्यो हालाहलेन मे।
शशांक केन मुग्धेन सुधांशुरिति भाषितः॥४३॥