पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१२७

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विलासः२]
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भाषाटीकासहितः।


वाली मृगशाक्कनयनी के कारण यह मेरा मर्त्यलोक स्वर्गलोक तुल्य हुआ है।

अंकायमानमलिके मृगनाभिपंकं पंकेरुहाक्षि
वदनं तव वीक्ष्य बिभ्रत्। उल्लासपल्लवित-
कोमलपक्षमूलाश्चंचूपुटं चटुलयंति चिरं चकोराः॥९९॥

हे कमलनयने! भालमें कस्तूरीतिलकसंयुक्त शोभायमान तेरे मुखको अवलोकन कर आनंदसे प्रफुल्लित किये हैं कोमल पंखमूल जिन्होंने ऐसे चकोर पक्षी चिरकालपर्यंत चोंचको चंचल करते हैं (चलाना चाहते हैं यह भाव। भाल में कस्तूरीके कृष्णवर्णके तिलकके कारण चकोरौंको सकलंक चंद्रमाका भबम होनेसे यह 'भम' अलंकार हुआ)

शिशिरेण यथा सरोरुहं दिवसेनामृतरश्मि-
मंडलम्। न मनागपि तन्वि शोभते तब रोषेण तथेदमाननम्[१]॥१००॥

हे कृशाङ्गि! जैसे शिशिर ऋतुमे कमल और दिनमें चंद्रमंडल किंचितमात्र भी शोभायमान नहीं होते वैसे ही रोषमें यह तेरा मुख सुशोजित नहीं होता।

चलद्भृंगमिवांभोजमधीरनयनं सुखम्। तदीयं
यदि दृश्येत काम शुद्धोऽस्तु किं ततः॥१०१॥


  1. 'वियोगनी' छंद है।