पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१३५

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विलासः२]
(११५)
भाषाटीकासहितः।

कंठपर्य्यंत जल में निशिदिन दिवाकर [सूर्य] को आराधनेवाली यह कमलपंक्ति, क्या सुलोचनी (नायिका) के कुच होने के लिए तपश्चर्या करती है? ('फलोत्प्रेक्षा' अलंकार है)

वियोगवह्निकुंडेऽस्मिन् हृदये ते वियोगिनि॥
प्रियसंगसुखायैव मुक्ताहारस्तपस्यति॥१२४॥

हे वियोगिनी! विरहरूपी अग्निके कुंड धारण करनेवाले इस तेरे हृदयमें मुक्ताहार, प्रियतमके संगसे होनेवाले सुखके अर्थ, तपस्या करता है (यह भी 'उत्प्रेक्षा' है)

निधिं लावण्यानां तव खलु मुखं निर्मितवतो
महामोहं मन्ये सरसिरुहसूनोरुपचितम्। उपेक्ष्य
त्वां यस्माद्विधुमयमकस्मादिह कृती कलाहीनं
दीनं विकल इव राजानमकरोत्॥१२५॥

तेरे लावण्यरासि मुख को निर्माण करनेवाले ब्रह्मदेव को मेरे जान महामोह प्राप्त हुआ; कारण, तेरी उपेक्षा कर, इस क्रियाकुशल विधि ने विकल (बुद्धि) की भांति कलाहीन दीन चंद्रमा को इस लोकमें राजा किया (सकल रमणीय पदार्थों में श्रेष्ठ तुझे करना था परंतु तेरे महामनोहर मुखको देख ब्रह्माने मोहित (सदसद्विचार हीन) होकर राजत्व चंद्र को दिया यह भाव)

स्तनांतर्गतमाणिक्यवपुर्वहिरुपागतम्।
मनोऽनुरागि ते तन्वि मन्ये वल्लभमीक्षितुम्॥१२६॥