पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१३७

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विलासः२]
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भाषाटीकासहितः।

'हे प्रिये! विषाद त्यागिये' इस प्रकार अनुरागयुक्त प्रियतमके कहने से नायिकाके लोचनद्वयसे अपरिमित अश्रुधारा और मनसे मान (दोनों एक ही साथ) स्खलित हुए एक कारणसे दो कार्य भए इससे 'समुच्चय' अलंकार हुआ

राज्याभिषेकमाज्ञाय शंबरासुरवैरिणः।
सुधाभिर्जगतीमध्यं लिंपतीव सुधाकरः॥१३०॥

मन्मथका राज्याभिषेक (होनेवाला है यह) जान चंद्रम) पृथ्वीतलको मानौ सुधासै लीप रहा है (चंद्रिका वर्णन है। इसमें 'समासोक्ति' और 'उत्प्रेक्षा' अलंकारका संकर है)

आननं मृगशावाक्ष्या वीक्ष्य लोलालकावृतम्।
भ्रमद्भमरसंभारं स्मरामि सरसीरुहम्॥१३१॥

मृगशावकनयनी का, चंचल अलक से आच्छादित मुख अवलोकन कर मैं भमण करनेवाले चमरसमूहसंयुक्त कमल को स्मरण करता हूं ('स्मृति' अलंकार है)

यांती गुरुजनैः साकं स्मयमानाननांबुजा।
तिर्यग्ग्रीवं यदद्राक्षीत् तन्निष्पत्राकरोज्जगत्॥१३२॥

गुरुजनौं के साथ गमन करनेवाली, सहास्यमुखरूपी कमलवाली (बाला) ने जिसकी (ओर) तिरछी ग्रीवा करके देखा उसको महान व्यथा उत्पन्नकी (इसमें 'निदर्शन' अलंकार है)

नयनानि वहंतु खंजनानामिह नानाविधमंग